पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/५४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

अस्थायी शान्ति ] ५० [चौथा खंड ब्रिटिश कूटनीति की घोर निंदा तथा ब्योरेवार आलोचना करने के पश्चात् अस पत्र में नानासाहबं पूछते हैं:--" हिंदुस्थान हडप कर मुझे 'बागी' कहने का तुम्हे क्या अधिकार है ? भारत पर राज करने का हक तुमको किसने दिया है ? क्या ? तुम विदेशी फिरंगी भारत के राजा ? और हम अपने ही देश में चोर ठहरे ? ॥ येही अन्तिम शब्द नानासाहब के नाम पर अितिहास ने संग्रह कर रखे हैं। ये शब्द क्या है-बालाजी विश्वनाथ पेशवा के सिंहासन की आह है ! शिवाजी के पेशवा के अन्तिम अत्तराधिकारी के योग्य दृढ, न्यायपूर्ण, आत्माभिमान तथा शान को शोभा देनेवाले ये शब्द हैं ! बाजीराव (२ य) के स्त्रण शासन का कलंक रक्त के सांतों से धो डाला गया और वह शुद्ध पेशवा का सिंहासन चित्तौड़ की राजपूतनियों के समान लडते, झगडते आत्मत्याग की अंची अठती अमिज्वालाओं में जलते हु संसार के रंगमंच से लोप हो गया, अस की अन्तिम चीख थी:-" भारत में विदेशी राजा बने और भारत के सपूत चोर ?" - अिस पत्र के प्रसंग के बाद नानासाहब का क्या हुआ, अितिहास नहीं जानता । अपनी अिच्छा से स्वीकृत दरिद्रता में बालासाहब की जंगल में मृत्यु हुी। आगे चल कर जंगबहादुरने अवध की बेगम तथा असके पुत्र को आसरा दिया था । गुजरानसिंह नामक अक क्रांतिनेता अक अन्तिम भिडन्त में मारा गया। अिस तरह १८५७ का यह राष्ट्रीय क्रांतियुद्ध अवध में समान हो गया। अपनी स्वाधीनता के लिओ, जिस से अधिक जीवट और वीरता से संसार में अन्य कोसी देश न लडा शेगा। __ मॅलेसन कहता है:--अवध के लोग, अपने भाभी सिपाहियों के छेडे हुमे विद्रोह में (कांतिकारियों में बहुसख्य अवधवाले ही थे) शामिल हुआ और स्वाधीनता के लिओ लडे। कितने हठीलेपन से झगडा किया गया जिसका वर्णन दे चुके हैं। भारत के दूसरे किसी भी हिस्से में जितना दृढ तथा दीर्घकालिक प्रतिकार न हुआ, जैसा कि अवधने किया। झगडे भर में