पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/५६१

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अध्याय २४] __ ५१७ [ पूर्णाहुति मेरा परिवार है; असका मेरे काम से तनिक भी सबध नहीं है। सो, मेरे लिन मेरे वृद्ध पिता को, कृपया, रंच भी कष्ट न दो।' १८ अप्रेल को जॉच का नाटक समाप्त हुआ, तात्या को फांसी की सजा सुनायी गयी और दोपहर ४ बजे असे ३ री बंगाली गोरी पलटन के सैनिकों के पहरे में वधस्थल को ले जाया गया। फॉसी के तख्ते के पास आने पर सैनिकोंने चौकोर व्यूह बनाकर अमे घेर लिया। हिंदी पैदल सैनिकों, रिसालेवाले सैनिकों तथा अन्य तमासबीनों की बड़ी भारी भीड़ जमा थी। फिर मेक बार, तात्याने अपने पिता को न सताने के लिये अंग्रजो को जताया। तात्या को असपर लगाया अभियोग तथा असका दण्ड पढ सुनाया गया, फिर 'लुहार ने असके पॉव की बेडियाँ तोड़ दी तब तनिक भी झिझक के बिना वह वधमच की ओर धीर और धीमी चालसे गया; सीढीपर से दनादन चढा । नियम के अनुसार जल्लाद जब अस के हाथ पॉब बॉघने आये, तो मुस्कराकर तात्याने कहा, 'मिस क्रम की जरा भी आवश्यकता नहीं, यह कहकर स्वयं अपने हाथों अपनी गर्दन में फॉसी का फदा डाल लिया ! फंदा कसा गया, तख्ता गिरा और झटके के साथ ..!!! पेशवा का राजनिष्ठ आज्ञाकारी, १८५७ का अक महान् वीर योद्धा, स्वदेश का हुतात्मा, स्वधर्म का रक्षक, आत्माभिमानी, भावुक, तथा अदार तात्या टोपे अंग्रेजों के बनाये फॉसी की टिकटिकी से निष्पाण लटक रहा था। वधमंच खून से लथपथ हुआ, और स्वदेश ऑसुमों से भीग गया। तात्या का दोष ?-यही, कि स्वदेश की स्वाधीनता के लिये अस ने अकथनीय यंत्रणाओं को सहा! असे पारितोषिक मिला विश्वासघाती की दोहरी नीचता! और अंग्रेजों ने असे किसी खूनी डाकू की तरह फॉसी लटकाया !! तात्या टोपे ! तात्या!! अिस अभागे राष्ट्र में तुम पैदा ही क्यों हु ! अिन 'विश्वासघाती, नीच और अक्ल के दुश्मनों के लिओ तुम लडे ही क्यों ! तात्या; क्या, हम देशभक्तों की आँखों से बरसनेवाले ऑसुओं को तुम नहीं देख पाते हो! हॉ, तुम्हारे रक्त का प्रतिदान हम दुर्बलों के ऑसू! कैसा बेढगा सौदा!