पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/५६५

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अध्याय ३ रा] ५२१ [समारोप हैं-(१) पहले के किसी प्रकार के अनघड स्वराज्य से भी बढकर अग्रेजों का शान्तिपूर्ण शासन अधिक हानिकर है.--यह बात न समझनेवाले मूखों का किया स्वदेशद्रोह और, (२) स्वदेशबंधुओं के विरुद्ध विदेशी शत्रु को रंच , भी सहायता न देने की प्रेरणा करनेवाली सचाभी तथा देशभक्ति की तीव्रता की कमी।* और अिसी से असफलता का सम पातक केवल अन देशद्रोहियों के ही सिर आ पडता है। अधिक स्पष्ट, अधिक सरल, आधिक आकर्षक आदर्श यदि अस समय जनता के सागने होता, तो ये देशद्रोही भी देशभक्त बन जाते । क्यों कि, देशभक्ति ही जब लाभकारी और स्वार्थ को पूरा कर देनेवाली हो, तब जानबूझकर देशद्रोही का कलकित तथा घोखे का धंघा, कौन करने जायगा? सच्चा अज्वल जश अन वीरों को है, जो जिस बात को, कि स्वराज्य से विदेशी सत्ता बहुत बुरी होती है, अपने हृदयपर अंकित कर स्वाधीनता के लिये युद्ध करने को खडे हो जाते हैं-फिर चाहे वह स्वराज्य गणतन्त्र, अकतन्त्र, राजतंत्र या अराजक ही क्यों न हो? अपने देश को सपत्तिशाली बनाना यही अद्देश स्वतंत्रता को बनाये रखनेका नहीं होता है, किन्तु अिसलिमे स्वतंत्रता ही में आत्मशान्ति होती है, लाभ या हानि की अपेक्षा आत्मसम्मान अधिक महत्त्वपूर्ण होता है; पराधीनता के सुनहरे पिजडे की अपेक्षा स्वाधीनता का • जंगल सइस गुना अच्छा है। जिन्होंने अिन सिद्धान्तों को जान लिया, अपने धर्म और देश के प्रति अपना कर्तव्य पूरीतरह निवादा, स्वधर्म और स्वराज्य के लिमे तलवारे सवारी और, केवल यश की आशा से नहीं, कर्तव्यपूर्ति के लिखे मौत को गले लगाया अन के नाम सदाही मेक गौरवपूर्ण स्मृति बनकर रहेंगे वे नाम गर्व के साथ लिये जायेंगे ! हमारा देश अन जीवों के नाम कदापि स्मरण न करें, जिन्होंने लापरवाही या झिझकसे स्वाधीनता के युद्ध में हाथ न बैंटाया। और जो शत्रु के पक्ष में चले गये तथा अपने ही देशबंधुओं के । विरुद्ध लड अनके नाम सदा अभिशप्त रहे-सुन की घोर निदा हो! १८५७ -

  • स. ५६-रसेल कृत माय डायरी अिन सिंडिया.