पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/५६६

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अस्थायी शान्ति ५२२ [चौथा खंड की क्रांति यह नापने का मेक नाप था, कि भारत मेक्ता, स्वाधीनता और जन ' प्रिय शासन की ओर कितना झुका है-कितना अभिभूत हो चुका है। १८५७ की क्रान्ति की असफलता का दोष अन के सिर है जो आलसी, डरपोक, स्वार्थी और विश्वासघानी थे जिन्होंने सत्यानाश किया। किन्तु जिन्होंने अपनाही अष्ण रक्त टपकानेवाली तलवार को अठाकर, अस महान पूर्वप्रयोग के लिअ अग्निमय रंगमंचपर प्रवेश किया; जो प्रत्यक्ष मृत्यु की छाती पर आनंदपूर्वक नाचते रहे, अन वीरों को दोष लगाने का साहस कोजी जीभ न करे ! वे कोसी पागल नहीं थे अतावले न थे धार में हाथ बटानेवाले न थे, अविचारी भी न थे और भिसी अन्हें कोमी दोष नहीं लग : सकता । अन्ही की प्रेरणा से भारतमाता अपनी गहरी नींद से जाग अठी और पराधीनता की धज्जियाँ अडाने के लिओ दौड पडी । किन्तु जव अस के अक हाथने अत्याचार के सिर पर अक जबरदस्त वार दे मारा, हाय, डाय, अस के दूसरे हाथ ने माता की छाती में छुरा घोप दिया । और वायल माता फिर अश बार लडखडाती भूमिपर गिर पड़ी ! अब गिन दो हाथों में कौनसा हाथ दुष्ट, नीच, विश्वासघाती और घृणायोग्य तथा दूषणयोग्य था ? x सं. ५७ । भारतीय विद्रोह से अितिहासकारों को कभी पाठ मिल सकते है; अन में भिस से बढकर कोी महत्त्वपूर्ण पाठ नहीं है, कि भारत में ब्राह्मण तथा शूद्र, हिंदु और मुसलमान हमारे ( अग्रेजों के) विरुद्ध अक हो कर क्रांति कर सकते हैं और हमारे अधिराज्य के बारे में यह मानना धोखे से खाली नहीं, कि भिन्न भिन्न धार्मिक रीतिरिवाजों का पालन करनेवाली जातियों से देश भरा है, तबतक अधिराज्य शान्तिपूर्वक वना रहेगा; क्यों कि, ये लोग अक दूसरे के रहन-सहन, रीत-रिवाजों और कार्यों को समझते हैं और झुनका आदर भी करते हैं; असमें हाथ भी बटाते हैं। ५७ के विद्रोह ने हमें । याद दिलाया है, कि हमारा अधिराज्य ओक पतली परत पर खड़ा है, और समाज-सुधार तथा धार्मिक क्रान्तियों के भयंकर विस्फोटों से किसी भी समय यह परत फट सकती है।-फॉरेस्ट के ग्रंथ की भूमिका से। '