पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/६

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तथा क्रांति के निश्र्वित सिध्दान्तो का भारत भर मे प्रभावी प्रचार इस तरह न हो पाता। सो,५७ के क्रांतिवीरो के ओजपूर्ण शब्दो द्वारा और उस से भी अधिक ओजपूर्ण कामो द्वारा क्रांति-संदेश देने के लिऐ वीर सावरकरजी ने उन क्रांतिवीरो का स्मरण किया। संपूर्ण राजनैतिक स्वातंत्र्य तथा उसे प्राप्त करने के लिये विदेशी राजसत्ता के साथ सशस्त्र युद्ध द्वारा राष्टीये क्रांति,यही ऐकमात्र और अन्तिम साधन होने की निश्र्विति-ये दोनो बाते,उस समय(९९०८)हिंदुस्थान में चालू राजनैतिक विचारगाति तथा कृति के क्षितिज पर भी न उगी थी। उस समय के गरम दल ने यह कुछ विचित्र तथा असम्भव सा कह कर उस का नाम लेना भी अच्छा न माना था;नरम दल के नेताओं ने तो इन कल्पनाओं ही को दोषपूर्ण बता कर घोर निंदा की और कुछ नितिवादी धर्मध्वजियो ने अनैतिकता के नाम पर उन का धिक्कार किया। उस समय की अखिल भारतीय राष्टीये महासभा (काँग्रेस) की आकांक्षा तथा साधना केवल यहा तक ही सीमित थी, कि हर समस्या समझौते से सुलझायी जाय और 'सुधारो' की ओर आँख लगाये रहे,स्वाधीनता के लिये समर तो दूर,स्वातंत्र्य,क्रांति ये शब्द भी उस समय के माननीय लब्घप्रतिष्ठ देशभक्तो को अपरिचित थे,उन की बुध्दि की पहुच के बाहर थे। सावरकरजी ने एक इतिहास-लेखक के नाते इस ग्रंथ का नाम केवल'राष्टीये उत्थान का इतिहास' या'१८५७ का युध्द' ऐसा ही कुछ नही रखा। कारण स्पष्ट है। तत्कालीन भारतीय देशभक्तो के प्रतिदिन के विचारो मे कम से कम इतने शब्दो को घुला देने और इन शब्दो की तह में होने वाले उदात्त ध्येयवाद से नौजवानों को अनजाने में भी प्रभावित करने के लिये सावरकर जी ने इस ग्रथं का नाम जान बूझ कर'१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य-समर' रखा। सशस्त्र क्रांति को सफल बनाना हो तो राजनीतिज्ञता और देशभक्ती की लहर सैनिको तथा सब सेनाविभागों तक पहुचाने की अत्यत-आवश्यकता का अनुरोध सावरकर जी आग्रह के साथ करते आये है। ५७ के इस क्रांतियुध्द के इतिहास ने निस्सदेह सिध्द कर दिखाया हे,कि ९० वषो के पूर्व हमारे पुरुखाओंने,संपूर्ण ख