पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/६०

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ज्वालामुखी] २८ [प्रथम खह एक बडे भाग्य की बात थी । किन्तु, हे तेजस्वी राजछौने ! इस महाभाग्य के साथ, तुझे भान है कि, कितने बडे दायित्व की धुरा तेरे कधेपर आ पडी है ? पेशवा का सिहासन कोई मामूली बात नहीं है। इसीपर वे महाप्रतापी बाजीराव प्रथम चढे थे और यहींसे उन्होंने एक साम्राज्य का सचालन किया है। पानीपत का युद्ध इसी सिहासनके लिए लड़ा गया था। पेशवाओंके मस्तक पर अभिसिचन करनेके लिए इसी सिंहासनपर सिधु का पवित्र जल उडेला गया था । वडगाव की सधि इसीके लिए हुई और सबसे महत्त्वपूर्ण बात है, पराधीनता का पापी स्पर्श इसी सिहासनको होनेवाला है- नहीं पहले ही हो चुका है। समझे बालक ! सिहासनका उत्तराधिकारी होनेका मतलब है उस सिहामनकी रक्षाका भार उठाना और उसका सुयश अक्षुण्ण रखने के लिए प्रतिजावद्ध होना । तो फिर पेशवाके इस सिहासनकी प्रतिष्ठा बनाये रखना स्वीकार है न ? या तो पेशवाके इस गद्दीपर विजय वा मुकुट विराजमान हो जाय; या तो, चित्तौड की वीरागनाओ के समान इस सिंहासन को धधकी हुई पवित्र चिताग्निमें स्वाहा कर देनाही योग्य होगा। पेशवाके सिंहासन की शान अक्षुण्ण रखनेका और कोई चारा नहीं है ! प्यारे राजकुमार ! सोच ले यह कर्तव्यभारः और तभी पाव धरो उस पेशवाके गद्दीपर | जब तेरे इस दत्तक पिताने बाजीराव (२ य) ने हृदयको दहलानेवाले ताने मारनेका लोगों को अवसर दिया कि 'पेशवाका मस्तक झुक गया, तबसे यह देश लज्जासे निस्तेज हो गया है और मन चाहते हैं कि यदि इस गद्दीका अंतही होना हो तो वह आरम्भ के समान हो-नष्ट होना हो तो भी लडते लडते! ओ चुलबुले कुमार ! ऐसी शान और दृढ़तासे पेशवा के सिहासन पर चढो, जिससे इतिहास भी गर्वसे पुकारेगा कि हाँ हॉ, प्रथम पेशवा बालाजी विश्वनाथके स्पर्शसे गर्वित सिंहासन उसके आखरी उत्तराधिकारी नानासाहब पर भी गर्व करता है। हॉ इसी अरसेमे काशीक्षेत्रमे चिमाजीअप्पा पेशवाके संगी साथियोंम मोरोपंत तावे अपनी धर्मपत्नी भागीरथीके साथ थे । इन पतिपत्नीके सपने में कभी खयाल नहीं आया होगा कि आगे चलकर उनका नाम अमर होनेवाला है। विधनाने जिस बालिकाको भारतमाताके हाथमे चमकनेवाली तलवारका स्थान देनेका सकेत किया था, उसके मातापिता होनेका गर्व