पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/६४

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लिए एक सहस्त्र पैदल सेना और एक हज़ार घुड्सवार भेज दिये। अपने शनिवार वाडे ( पूणे में) की रक्षा के लिए इन के पास सेना न थी.पर हाँ,गूरु गोविंदसिंह की पवित्र भूमी को भ्रष्ट होनेमे अंग्रेज़ों की सहायता के लिए इस को सेना मिल गयी! अभोग भारत! मराठा सिक्खो क राज्य मे और सिक्ख मराठो को पीटे- और वह सब क्यों! क्यों कि इन दोनों की लाशों पर अंग्रेज़ बेहोश होकर नाचे इसलिए! ह्मे ह्रदय से यमराज को धन्यवाद देना चाहिये कि यह स्वदेश्द्रोही बाजीराव १८२७ के पह्ले इस लोक से बिदा हुआ!


मरने के पह्ले,बाजीराव ने वसीयतनामा कर रखा, जिस में उस के दत्तक पुत्र नानासाहेब को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर पेशवाई के सब अधिकार दे दिये थे। किन्तु बजिराव की मृत्यु का सवाढ पाने ही अंग्रेज़ सरकार ने घोषित किया कि आठ लाख की पेन्शन में नानासाहब का कुछ भी अधिकार नहीं है। अंग्रेजों के इस निर्णय को सुन के नानासाह्ब की द्शा क्या हुई होगी? उन के मनमे उमडते हुए विचारों और भावों ने कैसे खलबली मचायी थी इस की झॉकी उनके पत्र में मिलती है। पत्र यों है:-


"पेशवा के श्रेष्ठ परिवार के साथ साधारण जनों का ता बर्ताव करने में कंपनी ने महान अन्याय किया है। त्व.श्रीमंत बाजीरावसाह्ब ने जब अपना राजसिंहासन कंपनी को सौंपा तब स्पष्टतया तय हुआ था कि उस के बदले मे कंपनी वार्षिक आठ लाख रुपया दे। यदि पेन्शन सदा के लिए चालू न रह्ता हो, तो फिर पेन्शन के बदले में छोडा हुआ राज्य भी तुम्हारे पास सदा के लिए क्यो कर रह सकता है? एक फरीक तो(मघि की शर्तो)प्रतिज्ञापत्र पर पूरा अमल करे और दूसरा फरीक ज्ञानबूझ कर उसे ठुकराय यह तो घोर अन्यायपूर्ण,असगत, और वाहियात बात है।"


दत्तक पुत्र के नाते अपने पिता के किसी अधिकार पर कोई हक नहीं है, अंग्रेज़ों की इस दलील का मुँह्तोड उत्तर अगले परिच्छेद मे देकर हिन्दुशास्त्रों, न्यायशास्त्र तथा राजनीतिशास्त्र के उद्धरण देकर अपने उत्तर की पुष्टि करते हुए आगे लिखा है,"पेन्शन बंद करने का कारण बताते हुए कंपनी ने कहा है कि बाजीराव ( २ य ) ने पेन्शन से बचा कर जो