पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/६८

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क्रीडा करनेवाले स्त्री-पुत्पो के झुंड और रनणीय तथा शिल्प-कौशल्य के प्रसिद्ध मंदिरो के आकाश मे ऊचें उठे और गंगा-तटपर दूरतक चम-चमाते हुए,कांचन-कलश;सभी हश्य अत्यंत मनोहारी था। राजनहल के दिवारों के अंदर चौडे वने मार्ग,किनारे लगे हुए हाट,राजनैतिक कार्यालय और मंत्रिमंडल के प्रधान भवन-इनसे वहाँ के महान् कायंकलानों की कल्पना आ जाती थी। राजनहल के अंदर उसके विशाल तमानृहों ने कीमती कालीनें त्रिछी हुई यी। रंगतिरंगी चिके लटक रही थीं। रतिकता से चुने ह तथा कीमती चीनी निटीके वरतन,जडाऊ रन्नोंसे चमकंते झाड-फानूस,सुंदर सजे हुए शीठो,बढिया कारीगरी के हाथी-दाँत के नमूने ऑर मणिरलों से बढी झोना-कहाँतक वणीन करें? सरांश,हिंदु राजप्रासाद मेँ मिलनेवाले सभी भोग-विलास तया वैभव बिठूर में बसने आये थे। श्रीमंत नानासाहब् को धोडे तया ऊँट चांदी के साजसानानते सजे धे। धुडसवारी का नानासाहन को बहुत शोक या ऑर कहते है। उस समय अक्षविझामे लशनीवाई तया नानासाहन अनना सानी कोई नहीं रखते ये। उन की अक्षशालानें शुद वीज के चुने हुए घोडे ये। प्राणीसंत्रह का भी उन्हे बडा चाव या; उनके संत्रहालय के शिकारी कुतौ,हिरनों,मृगांको देखने के लिए दुर दुर से लौक आया करते ये। किन्तु सबसे महत्वपूणे वास है,नानासहव अपने शरागार पर आधिक गवे करते ये। उस शखागार नें सब प्रकार के तया हर काम के शरत्र,पैनी फौलादी तलवारें,लंवे निशाने की अक्षावतू संदूकें तया छोटे बडे मुँह की तोपें रखी हुहे यीं। -अपने उत्र कुल तया वीर वंश का साये गवे करनेवाले नानासाहने अपने मन मे ठीक निणेय कर रखा या कि या तो आनी वैभवशाली परंपरा की होभा वढानेवाला जीवन व्यतीत करेंनें या नामोनिशान मिटा-कर समाप्र हो जायँगे। यह भी ध्यान देने हैं कि,प्रमुख धाँमसन का 'लिखा 'कानदुर'अवश्य पठनीय है;कयों कि कानपुर की कल्ल से वचे दो मे से एक यह जीव है,जिससे हत की पुस्तक का विशेष महत्व है।