पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/७२

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ज्वलामुखी ] ४० [ प्रथम खंड


बनाय रखने के लिए काफी है। समूचे संसार को यह सूचित होना आवश्यक था,कि भारत की स्वाधीनता को छिनने क पाप करने-वाले का प्रतिशोध-आज नहीं तो कल,जल्द या देरीसे-भयंकर और सर्व भक्षक प्रतिशोध-अवश्य लिया जाता है। नानासाहब भारतभूमि का प्रत्वक्ष कोध! हस भारती का नृसिंहमंत्र । हॉ ,यही एक बात हमारे अंतःकरण पर नानासहब क महान व्यक्तित्व अमिट अंकित करेगी ! हॉ ,केवल यही एक मात्र गुण भी ! और फिर साथ उनकी निजी उढारता,तीव्र कुलाभिमान और उससे भी मह्नीय देशप्रेमसे छलकता विशाल ह्र्दय,इन सब की स्मृति हमारा मस्तक उनके चरणोँमें विनम्र कराती है । और फिर जिसका बल भीम-सा है, मुकुटसे मस्तक सुशोभित है, जिनकी तेजस्वी और सचेत ऑखं छेडे गये आत्मामिमानके कारण आरत्क बनी है, जिनकी कमरमें लटकती तलवार तीन लाखके मूल्यवान म्यानसे बाहर निकलनेको तडप रही है,और जिनकी सारी देह स्वाराज्य तथा स्वधर्मके अपमानका प्रतिशोध लेनेकी तीव्र आकाक्ष तथा कोधसे, लाल हो उठी है,वह मन्य मूति हमारे मन:चक्षुओंके सामने खडी हो जोती है और ह्मे प्रभावित कर देती है। उमडते हुऐ परत्पर-विरोधी भावो,जरा ठहरो। उधर देखो;क्या हा:हा: कार मचा है! आखिर अंग्रेजों से नानाको उद्धत उत्तर मिला कि बाजीराव (२ य) की पेन्शनपर उसका कोई ह्क नहीं,वरंच उसे भिठूरके उत्तरधिकारित्व के सारे अधिकारों को भी छोडना पडेगा और ऊपर से कंपनी-सरकार शेखी बघारंती थी कि उसने बिल्कुल न्ययपूर्वक निर्णय किया है! न्याय ? अबसे न्यय अन्यायकी बातें अंग्रेज न करें, उसक निश्रित उत्तर देनेकी उन्हे आवश्यकता नही हैं| बहुत गहरी सिद्धता पूर्णताको पहुचॅ चुकी है और न्याय अन्याय का प्रश्र-कानपुरके रणमैदान हल होगा,यह निश्रित है | उसी स्थानमें मराठोंके ह्रदयोपर चोट करना न्यय या अन्याय है इसकी पूरी चर्चा होगी | सिरकटे कबघ, घावोंसे छिदे शरीर और लहूकी नहरें ही प्रक्षका उत्तर देगे ! और हॉ ,कनपुरके कुऍके किनारेपर बैठे गीध यह सब बहस सुनेंगे और न्याय अन्याय की समस्याके विषयमें पचायतका निर्णय सुनऍगे |