पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/७८

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ज्वालामुखी] • ४६ प्रथम खड ravina स्थगित करना पडा । लाचार, उसे चुप रहना पडा। फिर भी 'उदार' कंपनी सरकार रट लगाये हुई थी कि नवाबको उसकी रियाया को सुखी करनेके लिए राज्यप्रबंधमें सुधार करने चाहिये! किन्तु अब नवान को अपने राज्यप्रबंध को सुधार कर प्रजा को सुखी करने की योजना सोचने की आवश्यकता नहीं है। क्यों कि, भारत के सभी स्वतत्र संस्थानों का राज्यप्रबध सर्वोत्तम कर देने का दायित्व अपने सिर लेकर और जल्द से जल्द जनमंगल साधने की साधना का व्रत... लेकर ईस्ट इडिया कपनी का प्रतिनिधि डलहौसी हिंदुस्थान आ पहुँचा है । राजनीतिज्ञ की पैनी बुद्धि से उसने परख लिया कि असलमे १८३७ की सधि एक बडी भारी भूल हो गयी है। क्यों कि पुरानी सधि रट करने से, अवध के स्वतन्त्र राज्यपर दखल करने का एक अच्छे से अच्छा बहाना हाथ से निकल गया। स. १८०१ की सधि की यह एक शर्त, कि 'नवाब को ऐसा प्रबंध करना चाहिये जिससे प्रजा सुखी हो,' जब चाहें तब अयोग्या को हडप जाने के लिए अंग्रेजों के पास अकाट्य प्रमाण था। अब यह १८३७ की भूल कैसे सुधारी जाय ? या तो, सधि से साफ इनकार ही क्यों न किया जाय ? बस, झगडा खतम! और सचमुच, किसी तरह कोई परदापोशी न करते हुए नवाब को स्पष्ट कह दिया गया के १८३७ की जैसी कोई संधि अबतक बनी ही नहीं! अंग्रेजों को इस सधिका पूरा स्मरण था-१८३७ के बाद थोडेही वर्षांमें उन्हे इस का भान हुआ। स. १८४७ में लॉर्ड हार्डिंग्टन ने इस सधि के होने की वात स्पष्ट घोषित की थी। आगे चल कर १८५१ में तो क्नल स्लीमनने मधि हो जाने की बात दावे से कही थी। और १८५३ में केवल इस का जिक्र ही नहीं, प्रत्यक्ष वह सधिपत्र ही उस वर्ष के कपनी के खतपत्रोंमें अन्य सधिपत्रों के साथ नत्थी कर रखा गया था । और तिसपर भी अंग्रेजोंने उस संधि की हस्ती से इनकार कर दिया और वाजिद अलीशाह को सूचित किया गया कि यदि प्रजा के हित में

  • डलहौसीज अॅडमिनिस्ट्रेशन खण्ड २ पृ. ३६६.