पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/८३

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अध्याय ४ था [अवध अंग्रेजोंका दावा है कि यह सब गरीब किसान और काश्तकारों के हित के लिए किया गया था। अत्याचारी जमींदार अपने किसानों तथा प्रजा का शोषण करते थे जिससे प्रजा के हिमायती (१) अग्रेज उनको जमीदारो के क्रूर चगुलसे छडाने की नयी रीति शुरू कर रहे थे। हॉ, इस ढकोसले से कितने असामी और किसान धोखे मे आये वह अब अवध के रणमैदानपर जल्द ही दीख पडेगा । अपने स्वामी की ईमानदारी से सेवा करनेवाले ये विश्वासी. देहाती, घरवार से वचित, पूर्णतया लुटे गये और दर दर भटकनेवाले अपने जमींदारों तथा तालुकदारों को मिलने जाते और अपने स्वामी के समक्ष उनकी निष्ठा और प्रेम प्रकट करते । मतलब, अवध के नवाब से ठेठ साधारण किसान तक हर एक भुक्तभोगी था। एक भी स्थान ऐसा न बचा था कि जहॉ लूटखसोट, आग, बलात्कार की धूम न मची हो; एक भी घर न था जो उध्वस्त, स्मशानवत् न बना हो। नवावी कुशासन की जगह यह अतीव मगलकारी अच्छा शासन जो आया था ! स्वराज्य और परराज्यमें कितना बड़ा अंतर होता है इस का स्पष्ट भान, मानो, ऐसी दुःखपूर्ण रीतिसे, अवध की जनता को कराया गया था। पुराना पूरा इतिहास उनके.नेत्रोंके सम्मुख नाच रहा था। उन्हें अब पूरा विश्वास हो गया था कि ऐसी -पराधीनतासे मौत भी अच्छी है। स्वदेशका सर्वनाश होकर स्वराज्य भी मिट्टीम मिल गया, अब कहाँ तक इस देशमें पडे रहेंगे ? इस अत्यत लज्जापूर्ण तथा अपमानित जीवनसे उन्हे घृणा हो आती थी ! 'पराधीन सपनेह सुख नाही' तुलसीदासके इन शब्दोका पूरा अर्थ उनके हृदयपर अंकित हो गया था, परतत्रता वस्तुतः विषैली मक्खियोंका विषपूर्ण छत्ता है। उन्हें भान हुआ, कि जब तक यह छत्ता भारत के छतमे लटकता रहेगा तब तक डलहौसीके समान उसकी मक्खियाँ अपना विपैला डंख, हमारी मृत्युतक, मारतीही रहेंगी; इसीसे उन्होंने सोचा कि डलहौसी जैसी एकाध मक्खीको मारकर काम नहीं बनेगा। इस और महान गंभीर भूल थी। क्यों कि इसतरह उनका सफाया करने को न तो वे छातीपर के बोझ थे, न कोई डाकू ।