पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/८५

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- JU अध्याय ५ वा आग में घी जिस पराधीनता में, गत अध्याय में वर्णित अन्याय्य और अत्याचारी करतूतों और अबतक न बताये गये सैंकडों अपराध (जो' अकथनीय और अनगिनत हैं ) खुले आम बरते जाते है, उस परवशता को खुली ऑखों सहने और जिन की शैतानियत से यह सब हुआ उन के आगे गर्दन झुकाने में, क्या, स्वधर्म का सच्चा नाश नहीं है ? किस धर्मने आज तक पराधीनता और दासता की घोर निदा नहीं की ! सब धर्म मानवी जीवन का यही आदर्श बताते हैं कि, जगन्नियता परमात्मा के, तथा चराचर को स्वयंमुक्त होने के लिए ही अपने रूपमें पैदा करनेवाले करतार के, चित्स्वरूप में मुक्ति प्राप्त करें ! उस निर्मल निरंजन से तद्रूप होना हो तो मानव मे किसी प्रकार की कमी न रहे। किन्तु जिस राष्ट्र को गुलामी का शाप लग चुका हो वहाँ अधूरापन के बिना हो ही क्या सकता है ? न्याय की पराकाष्ठा ही प्रभु है और न्याय का निःशेष अभाव ही पराधीनता है। स्वाधीनता का परम विकास ही परमात्मा है और स्वातन्य का सपूर्ण अस्त ही पराधीनता है। इससे जहाँ प्रभुकी हस्ती है वहाँ परतत्रता का स्थान नहीं है और जहाँ पराधीनता धूम मचाती ही वहाँ देवता या दैवी गुण कैसे रह सकते हैं ? और जहाँ देवता को स्थान न हो वहाँ धर्म कहाँसे टिक सकेगा ? साराश, अन्याय के मसाले से बनी यह परवशता जहाँ कुहराम मचाती हो वहाँ सच्चे धर्म का होना असम्भव सा होता है । गुलामी का सीधा रास्ता नर्कमे पहुंचाता है, जहाँ सच्चा धर्म