पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/९०

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ज्वालामुखी] [प्रथम खड चानेवाला था। मिशनरियो की बडी बडी पाठशालाओ को बडी बडी रकमें सहायतार्थ देनेकी घोषणा सरकार कर चुकी थी। जब कि, लॉर्ड कॅनिग स्वयं अपने हाथो हजारों रुपयो का दान उन्हें देता था तब समूचे भारत को ईसाई बनाने का उसका हेतु स्पष्ट हो जाता है । और, हॉ, धर्मभ्रष्ट ईसाइयो को पहले की (हिंदु या मुस्लीम रहते हुए ) उनकी मौरूसी सपत्ति को गंवाने का भय है ? अच्छा, धर्मातर के साथ वह सपत्ति भी उसके साथ जाने की सुविधा देनेवाला एक कानून बना दिया जाय; बस ! और मिशनरी अपना प्रचार भापणोंद्वारा कर ही रहे थे कि सवाद मिला, धमोतरित व्यक्ति के अपने पूर्वधर्मकी मौरूसी संपत्तिके बारेमे सब तरहके हक कायम रखनेका कानून बन चुका है। और एक बात खुल गयी कि ईसाई धर्मप्रचारक तथा उनके आचार्य (बिगप) को दिये जानेवाले मोटे मोटे वेतन हिंदुस्थानही के खजानेसे दिये जाते थे। साधारण सरकारी कर्मचारी से लेकर बडे, अफसरोतक, हर अंग्रेज मे ईसाईकरण का मोह इतना व्याप्त हो गया था कि प्रत्येक गोरा अधिकारी अपने मातहत 'काले' को ईसाई बन जाने का सामह अनुरोध किया करता था (सख्ती भी !)! भारत के पैसे से पुष्ट बने सरकारी कर्मचारी, भारत ही के पैसे के बलपर भारत की जडपर कुलहाडी मार रहे थे और सरकार उनको तरजीह देती थी। और सरकार के नामपर थे केवल लॉर्ड कॅनिंग और उस के कौन्सिलर! इस दगामे लोगोंके मन मे यह भय घर कर गया था। ब्रिटिश राज मे आगे चल कर भारतीय धर्मोपर कठोर आघात होनेवाला है। इस भयंकर अगान्ति को नष्ट करने के लिए मिशनरियों ने भारत का प्रमुख स्थान बने सेना के सैनिकों को ही ईसाई बनाने का जतन शुरू किया। विचार यह था कि जनता बिगड उठे तो उस अशान्ति की लपट सैनिकों तक पहुँचने का डर न रहेगा। लोग इस कुटिल दॉव को भॉप गये थे, इस का प्रमाण उस समय के विद्रोहियो के 'घोषणापत्रोंमे मिल जाता है। घोषणापत्रों में उल्लेखित दुःख तथा शिकायतें अक्षर अक्षर सत्य होनेका प्रमाण उस समय के अंग्रेज इतिहासकारोंके उन वाक्यों में मिलता है, जो अनिच्छा से किन्तु लाचार होकर उन्हें लिखने पडे । प्रत्यक्ष लडाई चाल न हो तब सिपाहियों को फुरसत थी। और