पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/९१

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अध्याय ५ वा] [आग मे घी तब अंग्रेज कर्नेल, कप्तान तथा अन्य सेनाधिकारी अपना समय किस तरह बिताते होंगे ? कल्पना कर सकते हो, पाठक १ और कुछ न करते हुए ईसाई धर्मपर भापण झाडते थे! और सिपाहियों को सुनना अनिवार्य था। इस तरह उनकी मतिमें भ्रम पैदा करना अफ्सरो का फुरसत का धदा था। और ये भाषण सरल और शिष्ट भाषा मे थे? नहीं, कभी नहीं । जिसके केवल पवित्र नामोच्चारण से हर हिदू का अतःकरण भक्ति-भाव • से भर जाता है उन प्रभु रामचद्रजी को, तथा जिस का नाम मुसलमानोके हृदयमे आदरपूर्ण डर पैदा करता है उन हजरत मुहम्मदसाहब को ये ईसाई धर्म-प्रचारक चुनी हुई गालियोंसे सबोधित करते थे। इसी बीच वेद तथा कुरानकी पवित्रता को भ्रष्ट किया जा रहा थाः मूर्तियोको भी भ्रष्ट कराया जा रहा था। यदि कोई सेनिक इन दुष्ट फिरगियोको तानेको ताना और गालीको गाली सदसमेत लौटा देता तो मिशनरी कर्नेल उस गरीबकी "घी-रोटी' बद कर देते थे। अंग्रेजोंकी सैनिकी बारिक मे रहना तो स्वधर्मपर अंगार रख कर ही जीवन बिताना था। कोई सिपाही ईसाई बन जाता तो उसे बहुत बढावा मिलता और ऊँचे पदपर उसकी तरक्की' होती। हाँ, जो सचमुचही अच्छी योग्यता रखते थे उनकी दाद न दी जाती और वह भी जानबूझ कर। एक आवारे सैनिकको स्वधर्मत्याग करने पर हवालदार बनाया गया और दूसरे स्वधर्मद्रोही हवालदारको सूबेदार मेजर का पद दिया गया * सेनाके सिपाही गरीब, गॅवार और अल्पदर्शी थे। ऐसे सैनिकोको धर्मभ्रष्ट किया जाय तो फिर साधारण जनताको धर्मभ्रष्ट करना तो बाएँ हाथका खेल होगा, इस गहरे विचारसे अंग्रेजोने निश्चय किया कि पहला हमला इन सैनिकों ही पर किया जाय और इस निर्णयके अनुसार सब ओरसे प्रकट-अप्रकटरूपसे हिंदु-मुसलमानोंके धर्मोपर आक्रमण शुरू हुआ। यहाँ तक कि, सेनामे कमाडर और कनैल के पदपर होनेवाले गोरोंने स्पष्टरूपसे समाचारपत्रोद्वारा प्रकट करनेकी हिम्मत की कि, सिपाहियोको धर्मभ्रष्ट करनेके एकमात्र हेतुही से वे सेनामे भरती हुए थे। गाल पैदल

  • एक बगाली हिंदू लिखित ' कॉजेस् ऑफ दि म्युटिनी'