पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/९४

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ज्वालामुखी] ६२ [प्रथम खंड घोषणा की गयी कि धर्मभ्रष्ट करनेकी बात तो दूर ही रही; किन्तु कारतुसों मे गौ का खून और सुअग्की चरवी लगाये जानेकी बात सरासर झूठी और कपोलकल्पित बात है। तो फिर यह झूठी खबर क्यों कर फैली ? इसका दायित्व सरकारपर था या सैनिकोंपर ? यदि गौ का खून और सुअर की चरबी सचमुच कारतूसोमे चुपडी गयी हो तो इसमे सरकारका अजान था या और कोई हेतु । छिपा था ? यह बात तो एक क्षणके लिए टिक न पायगी कि इन कारतूसोमे क्या लगाया था या उनमे क्या लगाया गया था इसका पता अंग्रेजोको नहीं था। क्यो कि, स. १८५३मे ये कारतूस नये बनाये गये और कानपुर, रगून, फोर्ट विलियम आदि स्थानोमे 'काले सैनिकोंको दिये गये थे उन्हें जरा भी सदेह न था कि उन मे कोई अपवित्र वस्तु लगायी गयी हो; उन सैनिकोंने जब अंग्रेजोका विश्वास पर अपने दॉतासे उन कारतूसोकी टोपीको काटा तब भी अंग्रेज अफसर पूरी तरह जानते थे कि कारतूसों को किस तरह चिकना किया गया था। स. १८५३के दिसंबर के सरकारी विवरणमे यह बात साफ शब्दोंमें बतायी है। यहॉतक कि सिपहसालार भी इसे ठीक तरह जानते थे । और हॉ, गो या सुअरका खून या चरवी चाटना दोनों धर्मोमे अपवित्र, इसीसे त्याज्य होना स्वीकार किया है, इस सत्यको जानते हुए भी इन काडतूसोंके कारखाने भारतमे स्थानस्थानपर धडाधड खोले गये। इन कारखानो में, काम करनेवाले निम्न स्तरके लोगोंसे टीक जानकारी प्राप्त कर बराकपुरके सिापहियोने इस चरवीवाले संवादको देशभरमें फैला दिया और वह भी इतने वेगसे कि बिजली भी हार मान जाय! केवल दो सप्ताहोंमे घर घरमें हिंदु और मुसलमान, बिना इन चिकने कारतूसोंके, दूसरी चर्चाही नहीं करता था। ज्यो ज्यों इस कारणसे लोगोंके क्रोधकी मात्रा बढने लगी, त्यो त्यो वाइसरायसे ले कर साधारण गोरे सिपाही तक हरएक दावेके साथ बार बार कहता था कि यह चरवीवाली बात एक झूठी अफवाह थी!

  • के कृत इंडियन म्यूटिनी खण्ड १, पृ. ३८०