पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/९६

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ज्वालामुखी] [प्रथम खड इनकार कर दिया, तब सेनाधिकारियोंने अपथसे कहा, कि यह चरबीवाला मामला, बस, ढकोसला है । तिसपर भी,जो सिपाही अपने धार्मिक विश्वासों (?) के कारण दॉतसे टोपी काटनेसे इनकार करते थे,उन्हे बडी सना देनकी धमकी भी दी जाती। किन्तु इस डॉटडपटकी पर्वाह न करते हुए अपने धर्मकी रक्षाको, हर स्थितिमें, सिपाहियोंने सबसे ऊपर माना; तत्र सरकारने अपनी चाल बदली और सैनिकोंको छूट दी कि चरबी लगी जगहपर कागजका , उपयोग किया जा सकता है। किन्तु जिस सरकारने गौ और सुअरकी चरबीका उपयोग करनेकी नीचता दिखायी, वहीं सरकार, सुविधाके लिए दिये हुए कारतूसी कागजको और थोडा चिकना बनानेके लिये, भला, और कोई दुष्ट छलविद्याका प्रयोग न करेगी इस की क्या निश्चिति ? किसी तरह एक बार अनजानमे गौ और सुअरकी चरवीसे सैनिकोके मुंह अपवित्र हो जाये कि मिशनरी कनैल और कमाडर अधिकारी उन्हे ताना मारते थे " देखा! तुम धर्मभ्रष्ट हो गये!" इस तरह एक ओर से, सेनाके ऊँचे अफसर अपनी खराब करतूतोंसे इनकार कर तथा निर्लज्जतासे अपनी बात को बार बार बदल कर, सैनिकोंकी वेचैनी और क्रोधको शात करनेका जतन कर रहे थे, जहाँ दूसरी ओर ये ही महाशय धर्मद्वेषके जोगमे सचलन-स्थान ( परेड-ग्राउड) पर, श्रीरामचद्रजी तथा हजरत मुहम्मदसाहबको गालियों गिनानेवाले पर्चे, हजारोंकी सख्यामें 'वितरण कर सैनिको की क्रोधामि को भडका रहे थे। इस कारतूस-विरोधी आदोलन का प्रारभ ठीक जनवरीके प्रारंभ से हुआ था और जनवरीके समाप्त होते होते सरकार और एक बार झुक गयी; नई आज्ञा जारी हुई की " असे सैनिक अपने हाथों बनाई चरवी को काम मे लाया करें।" आगे चलकर और एक सैनिकी पर्चेमे श्री. बर्चने सब के लिए प्रकट किया कि अबसे सैनिकों के पास एक भी निषिद्ध कारतूस नहीं पहुंच पायगा । सफेत झूठ के सरदार के भी, इस कथनने कान काट लिये। स. १८५६ में इस कारतूसी मामलेमें सैनिकोंके धार्मिक विश्वासोंकी ओर तनिक भी ध्यान न देने की भूल की गयी है। - (फॉर्थी इयर्स इन इडिया पृ. ४३१)