पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/९७

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अध्याय ५ वॉ] [आग में घी अंबाला केन्द्रसे बाईस हजार पाँचसौ तथा स्यालकोटसे चौदा हजार याने कुल ३६५०० कारतूस रवाना हुए। राइफल-शिक्षा केन्द्रोमे इन्हीं कारतूसोंका उपयोग इस समय भी सरेआम हो रहा था । गोरखा टुकडियोमें ये कारतूस खुलकर बॉटे गए और सेनाधिकारी डॉट दिखाते थे कि सैनिकों को जबरदस्ती इन काडतूसोंका उपयोग करना पडेगा। एक स्थानमें सैनिकोंने डट कर इनकार किया तो समूची पलटनको दण्ड दिया गया। ___ तब सिपाहियोंको भान हुआ कि इन काडतूसोंको टॉतसे काटना पडे या न पड़े, एक बात निश्चित है कि जब तक इस सारे झंझट की जड यह पराधीनता, यह राजनैतिक गुलामी पूरी तरह नष्ट न की जाय तब तक वे सुखसे नहीं रह सकेंगे। पारतत्र्यके पचडेमें पिचनेवाले प्राणियोंको कैसा धर्म ! धर्मका सबसे प्रथम चिन्ह है स्वतत्र राष्ट्र का स्वतंत्र 'नागरिक होना! उठो, भारत, अब उठो! गुरु श्रीरामदासका यह उपदेश ग्रह्ण करो: धर्मके लिये मरें। मरते सभी को मारें। मारते मारते ले लें। राज्य अपना ।। - इसी संदेसेको अपने हृदयमें रटते हुए, हिंदुस्थानका हर सैनिक स्वराज्य और स्वधर्मके लिए मैदानमें उतरनेको अपनी तलवार पैनी करने लगा।