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(ग) खेलत मानसरोवर गईं। जाइ पाल पर ठाढ़ी भईं॥
देखि सरोवर हँसै कुलेली। पदमावति सों कहहिं सहेली॥
ए रानी! मन देखु विचारी। एहि नैहर रहना दिन चारी॥
जौ लगि अहै पिता कर राजू। खेलि लेहु जो खेलहु आजू॥
पुनि सासुर हम गवनव काली। कित हम, कित यह सरवर-पाली॥
कित आवन पुनि अपने हाथा। कित मिलि कै खेलब एक साथा॥
सासु ननद बोलिन्ह जिउ लेहीं। दारुन ससुर न निसरै देहीं॥
पिउ पियार सिर ऊपर, पुनि सो करै दहुँ काह।
दहुँ सुख राखै की दुख, दहुँ कस जनम निबाह॥

 

अथवा

कहा मानसर चाह सो पाई। पारस-रूप इहाँ लगि आई॥
भा निरमल तिन्ह पायँन्ह परसे। पावा रूप रूप के दरसे॥
मलय-समीर बास तन आई। भा सीतल, गै तपनि बुझाई॥
न जनौं कौन पौन लेइ आवा। पुन्य-दसा भै पाप गँवावा॥
ततखन हार बेगि उतिराना। पावा सखिन्ह चंद बिहँसाना॥
बिगसा कुमुद देखि ससि-रेखा। भै तहँ ओप जहाँ जोइ देखा॥
पावा रूप रूप जस चहा। ससि-मुख जनु दरपन होइ रहा॥
नयन जो देखा कवल भा, निरमल नीर सरीर।
हँसत जो देखा हंस भा, दसन-जोति नग हीर॥

P.T.O.