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नार सब नाजू के॥ हथ संकला सोहे हद
खूब। जेवर बण्यो लूंबालूम्ब॥ कडीयों
साटों का जोड़ा के। जांझण जीभीयों
तोड़ा के। रण झण पांव में बाजे के॥
इतनो आभूषण छाजे के। ऐसी सज
सोले सिणगार। मेले बीच आवत नार॥
साथे मर्द सब आवे के। मेलो देख
मन भावे के॥ सब मिल संग सुणता
गीत। हे जेसांण में हद रीत॥ रहता सांम
तक बिसरांम। घर को फेर चलती बांम॥
मेला घिरत जो पाछा के। गावत गीत मिल
आछा के॥ आगे गीत गावत नार।
चालत मर्द लारोलार॥ साथे नारियों सब कंथ।
मोरो ज्यूं भया महेमंद॥ दाखल होत शहर मंझार।
धीरे मधुर चलती नार॥ सूरज अस्त पड़ता सांम।
पहोच्या जाय अपने धांम। गजल गड़सीसर की जोय॥
बाच्चों सुंसदा खुस होय। मन में उठ गई
उमंग॥ गजल कही मुं. उम्मेदसिंह॥
इति श्रीतलाव गड़सीसर की गजल महेता उम्मेद सिंह कृत संपूर्ण। शुभं भवतु॥

जैसलमेरीय 'संगीत रत्नाकर' पहिला हिस्सा, नवलकिशोर प्रेस, लखनऊ में मुद्रित। १९२९ ई. मूल्य आठ आना।

बाप नामक तालाब की कहानी हमें उस्ताद निजामुद्दीनजी से सुनने मिली। मई की रेतीली आंधी के बीच वहां की यात्रा बीकानेर की संस्था उरमूल ट्रस्ट के श्री अरविंद ओझा की मदद से की गई।

मरुभूमि में भगवान श्रीकृष्ण के वरदान का प्रसंग श्री नारायण लाल शर्मा की पुस्तिका से लिया गया है। मरुभूमि के गांवों में, शहरों में और तो और निर्जन तक में इस वरदान के दर्शन होते हैं।

तालाब बांधता धरम सुभाव

तालाबों के 'धरम सुभाव' का वर्णन डिंगल भाषा कोष से मिला है। यह कोष सन् १९५७ में श्री नारायण सिंह भाटी के संपादन में राजस्थान शोध संस्थान, चौपासनी, जोधपुर से प्रकाशित हुआ है। कोष के हमीरमाला खंड में तालाबों के पर्यायवाची शब्द गिनाते हुए कवि हमीरदान रतनू ने इन्हें धरम सुभाव कहा है।

१०५ आज भी खरे हैं तालाब