पृष्ठ:Aaj Bhi Khare Hain Talaab (Hindi).pdf/११

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किसी साधारण गृहस्थ ने, विधवा ने बनाया तो किसी को किसी असाधारण साधु-संत ने - जिस किसी ने भी तालाब बनाया, वह महाराज या महात्मा ही कहलाया। एक कृतज्ञ समाज तालाब बनाने वालों को अमर बनाता था और लोग भी तालाब बनाकर समाज के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते थे।

समाज और उसके सदस्यों के बीच इस विषय में एक ठीक तालमेल का दौर कोई छोटा दौर नहीं था। एकदम महाभारत और रामायण काल के तालाबों को अभी छोड़ दें तो भी कहा जा सकता है कि कोई पांचवीं सदी से पन्द्रहवीं सदी तक देश के इस कोने से उस कोने तक तालाब बनते ही चले आए थे। कोई एक हज़ार वर्ष तक अबाध गति से चलती रही इस परंपरा में पन्द्रहवीं सदी के बाद कुछ बाधाएं आने लगी थीं, पर उस दौर में भी यह धारा पूरी तरह से रुक नहीं पाई, सूख नहीं पाई। समाज ने जिस काम को इतने लंबे समय तक बहुत व्यवस्थित रूप में किया था, उस काम को उथल-पुथल का वह दौर भी पूरी तरह से मिटा नहीं सका। अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी के अंत तक भी जगह-जगह पर तालाब बन रहे थे।

लेकिन फिर बनाने वाले लोग धीरे-धीरे कम होते गए। गिनने वाले कुछ ज़रूर आ गए पर जितना बड़ा काम था, उस हिसाब से गिनने वाले बहुत ही कम थे और कमज़ोर भी। इसलिए ठीक गिनती भी कभी हो नहीं पाई। धीरे-धीरे टुकड़ों में तालाब गिने गए, पर सब टुकड़ों का कुल मेल कभी बिठाया नहीं गया। लेकिन इन टुकड़ों की झिलमिलाहट पूरे समग्र चित्र की चमक दिखा सकती है।

लबालब भरे तालाबों को सूखे आंकड़ों में समेटने की कोशिश किस छोर से शुरु करें? फिर से देश के बीच के भाग में वापस लौटें।

आज के रीवा ज़िले का जोड़ौरी गांव है, कोई २५०० की आबादी का, लेकिन इस गांव में १२ तालाब हैं। इसी के आसपास है ताल मुकेदान, आबादी है बस कोई १५०० की, पर १० तालाब हैं गांव में। हर चीज़ का औसत निकालने वालों के लिए यह छोटा-सा गांव आज भी १५० लोगों पर एक अच्छे तालाब की सुविधा जुटा रहा है। जिस दौर में ये तालाब बने थे, उस दौर में आबादी और भी कम थी। यानी तब ज़ोर इस बात पर था कि अपने हिस्से में बरसने वाली हरेक बूंद इकट्ठी कर ली जाए और संकट के समय में आसपास के क्षेत्रों में भी उसे बांट लिया



आज भी खरे हैं तालाब