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जाए। वरुण देवता का प्रसाद गांव अपनी अंजुली में भर लेता था।

और जहां प्रसाद कम मिलता है? वहां तो उसका एक कण, एक बूंद भी भला कैसे बगरने दी जा सकती थी। देश में सबसे कम वर्षा के क्षेत्र जैसे राजस्थान और उसमें भी सबसे सूखे माने जाने वाले थार के रेगिस्तान में बसे हज़ारों गांवों के नाम ही तालाब के आधार पर मिलते हैं। गांवों के नाम के साथ ही जुड़ा है 'सर'। सर यानी तालाब। सर नहीं तो गांव कहां? यहां तो आप तालाब गिनने के बदले गांव ही गिनते जाएं और फिर इस जोड़ में २ या ३ का गुणा कर दें।

जहां आबादी में गुणा हुआ और शहर बना, वहां भी पानी न तो उधार लिया गया, न आज के शहरों की तरह कहीं और से चुरा कर लाया गया। शहरों ने भी गांवों की तरह ही अपना इंतज़ाम खुद किया। अन्य शहरों की बात बाद में, एक समय की दिल्ली में कोई ३५० छोटे-बड़े तालाबों का ज़िक्र मिलता है।

गांव से शहर, शहर से राज्य पर आएं। फिर रीवा रियासत लौटें। आज के मापदंड से यह पिछड़ा हिस्सा कहलाता है। लेकिन पानी के इंतज़ाम के हिसाब से देखें तो पिछली सदी में वहां सब मिलाकर कोई ५००० तालाब थे।

नीचे दक्षिण के राज्यों को देखें तो आज़ादी मिलने से कोई सौ बरस पहले तक मद्रास प्रेसिडेंसी में ५३,००० तालाब गिने गए थे। वहां सन् १८८५ में सिर्फ १४ ज़िलों में कोई ४३,००० तालाबों पर काम चल रहा था। इसी तरह मैसूर राज्य में उपेक्षा के ताज़े दौर में, सन् १९८० तक में कोई ३९,००० तालाब किसी न किसी रूप में लोगों की सेवा कर रहे थे।

इधर-उधर बिखरे ये सारे आकड़े एक जगह रख कर देखें तो कहा जा सकता है कि इस सदी के प्रारम्भ तक आषाढ़ के पहले दिन से भादों के अंतिम दिन तक कोई ११ से १२ लाख तालाब भर जाते थे- और अगले जेठ तक वरुण देवता का कुछ न कुछ प्रसाद बांटते रहते थे।

क्योंकि लोग अच्छे-अच्छे काम करते जाते थे।