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२० आज भी खरे हैं तालाब

कमी नहीं थी। ये मटकूट थे तो कहीं मटकूड़ा और जहां ये बसते थे, वे गांव मटकूली कहलाते थे। सोनकर और सुनकर शब्द सोने का काम करने वालों के लिए थे। पर यह सोना सोना नहीं, मिट्टी ही था। सोनकर या सुनकर राजलहरिया भी कहलाते थे। ये अपने को रघुवंश के सम्राट सगर के बेटों से जोड़ते थे। अश्वमेध यज्ञ के लिए छोड़े गए घोड़े की चोरी हो जाने पर सगर-पुत्रों ने उसको ढूंढ निकालने के लिए सारी पृथ्वी खोद डाली थी और अंत में कपिल मुनि के क्रोध के पात्र बन बैठे थे। उसी शाप के कारण सोनकर तालाबों में मिट्टी खोदने का काम करते थे, पर अब क्रोध नहीं, पुण्य कमाते थे। ये ईंट बनाने के काम में भी बहुत कुशल रहे हैं। खंती भी तालाब में मिट्टी काटने के काम में बुलाए जाते थे। जहां ये किसी वज़ह से न हों, वहां कुम्हार से तालाब की मिट्टी के बारे में सलाह ली जाती थी। तालाब की जगह का चुनाव करते समय बुलई बिना बुलाए आते थे। बुलई यानी वे जिन्हें गांव की पूरी-पूरी जानकारी रहती थी। कहां कैसी ज़मीन है, किसकी है, पहले कहां-कहां तालाब, बावड़ी आदि बन चुके हैं, कहां और बन सकते हैं- ऐसी सब जानकारियां बुलई को कंठस्थ रहती थीं, फिर भी उसके पास इस सबका बारीक हिसाब-किताब लिखा भी मिलता था। मालवा के इलाकों में बुलई की मदद से ही यह सब जानकारी रकबे में बाकायदा दर्ज की जाती थी। और यह रकबा हरेक ज़मींदारी में सुरक्षित रहता था। बुलई कहीं ढेर भी कहलाते थे। और इसी तरह मिर्धा थे, जो ज़मीन की नाप-जोख, हिसाब-किताब और ज़मीन के झगड़ों का निपटारा भी करते थे। ईंट और चूने के गारे का काम चुनकर करते थे। बचे समय में नमक का भी व्यापार इन्हीं के हाथ होता था। आज के मध्य प्रदेश में सन् १९११ में चुनकरों की आबादी २५,००० से ऊपर थी। उधर उड़ीसा में लुनिया, मुरहा और सांसिया थे। अंग्रेज़ के समय सांसियों को अपराधी जाति बताकर पूरी तरह तोड़ दिया गया था। नए लोग जैसे तालाबों को भूलते गए, वैसे ही उनको बनाने वालों को भी। भूले-बिसरे लोगों की सूची में लडिया, दुसाध, नौनिया, गोंड, परधान, कोल, ढीमर, ढींवर, भोई भी आते हैं। एक समय था जब ये तालाब के अच्छे जानकार माने जाते थे। आज इनकी उस भूमिका को समझने के विवरण भी हम खो बैठे हैं।