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अपने शरीर को तो क्या संसार तक को मिट्टी मानने वाली परंपरा का हिस्सा थी। किस्सा बताता है कि राजा जसमा को पाने के लिए कुछ भी करने को तैयार था, अपने कर्तव्य को छोड़ कर जो नहीं करने लायक था, वह भी करने लगा था। जसमा ऐसे राजा की रानी बनने से पहले मृत्यु का वरण करना तय करती है। राजा का नाम मिट गया पर जसमा ओढ़न का जस आज भी उड़ीसा से लेकर छत्तीसगढ़, महाकौशल, मालवा, राजस्थान और गुजरात में फैला हुआ है। सैकड़ों बरस बीत गए हैं, इन हिस्सों में फसल कटने के बाद आज भी रात-रात भर जसमा ओढ़न के गीत गाए जाते हैं, नौटंकी खेली जाती है। भवई के मंचों से लेकर भारत भवन, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय तक में जसमा के चरण पड़े हैं।

जसमा ओढ़न का यश तो लोगों के मन में बाकी रहा पर ओढ़ियों का तालाब और कुएं वाला यश नए लोगों ने भुला दिया है। जो सचमुच राष्ट्र निर्माता थे, उन्हें अनिश्चित् रोजी-रोटी की तलाश में भटकने के लिए मजबूर कर दिया गया है। कई ओढ़ी आज भी वही काम करते हैं- इंदिरा नहर को बनाने में हज़ारों ओढ़ी लगे थे- पर जस चला गया है उनका।

उड़ीसा में ओढ़ियों के अलावा, सोनपुरा और महापात्रे भी तालाब और कुएं के निर्माता रहे हैं। ये गंजाम, पुरी, कोणार्क और आसपास के क्षेत्रों में फैले थे। सोनपुरा बालगीर ज़िले के सोनपुर गांव से निकले लोग थे। एक तरफ ये मध्य प्रदेश जाते थे तो दूसरी तरफ नीचे आंध्र तक। खरिया जाति रामगढ़, बिलासपुर और सरगुजा के आसपास तालाब, छोटे बांध और नहरों का काम करती थी। १९७१ की जनगणना में इनकी संख्या २३ हज़ार थी।

बिहार में मुसहर, बिहार से जुड़े उत्तर प्रदेश के हिस्सों में लुनिया, मध्य प्रदेश में नौनिया, दुसाध और कोल जाति भी तालाब बनाने में मग्न रहती थी। मुसहर, लुनिया और नौनिया तब आज जैसे लाचार नहीं थे। १८वीं सदी तक मुसहरों को तालाब पूरा होने पर उचित पारिश्रमिक के साथ-साथ ज़मीन भी दी जाती थी। नौनिया, लुनिया की तालाब बनने पर पूजा होती थी। मिट्टी के पारखी मुसहर का समाज में अपना स्थान था। चोहरमल उनके एक शक्तिशाली नेता थे किसी समय। श्री सलेस (शैलेष) दुसाध के पूज्य थे। इनके गीत जगह-जगह गाए जाते हैं और इन्हें दूसरे लोग भी इज़्जत देते हैं। दुसाध जब श्री सलेस के यज्ञ करते हैं तो अन्य तालाब जातियों के लोग भी उसमें भाग लेते हैं।