इन्हीं इलाकों में बसी थी डांढ़ी नामक एक जाति। यह कठिन और मेहनती काम करने के लिए प्रसिद्ध थी और इस सूची में तालाब और कुआं तो शामिल था ही। बिहार में आज भी किसी कठिन काम का ठीक हल न सूझे तो कह देते हैं, "डांढ़ी लगा दो।" डॉढ़ी बहुत ही सुन्दर मज़बूत काठी की जाति थी। इस जाति के सुडौल, गठीले शरीर मछली (मांसपेशी) गिनने का न्यौता देते थे।
आज के बिहार और बंगाल में बसे संथाल भी सुन्दर तालाब बनाते थे। संथाल परगने में बहुत कुछ मिट जाने के बाद भी कई आहर यानी तालाब, संथालों की कुशलता की याद दिलाने खड़े हैं।
महाराष्ट्र के नासिक क्षेत्र में कोहलियों के हाथों इतने बंधान और तालाब बने थे कि इस हिस्से पर अकाल की छाया नहीं पड़ती थी। समुद्र तटवर्ती गोवा और कोंकण प्रदेश घनघोर वर्षा के क्षेत्र हैं। पर यहां वर्षा का मीठा पानी देखते ही देखते खारे पानी के विशाल समुद्र में मिल जाता है। यह गावड़ी जाति की ही कुशलता थी कि पश्चिम घाट की पहाड़ियों पर ऊपर से नीचे तक कई तालाबों में वर्षा का पानी वर्ष भर रोककर रखा जाता था। यहां और इससे ही जुड़े कर्नाटक के उत्तरी कन्नड़ क्षेत्र में चीरे नामक पत्थर मिलता है। तेज़ बरसात और बहाव को इसी पत्थर के सहारे बांधा जाता है। चीरे पत्थर को खानों से निकाल कर एक मानक आकार में तराशा जाता रहा है। इस आकार में रत्ती भर परिवर्तन नहीं आया है।
इतना व्यवस्थित काम बिना किसी व्यवस्थित ढांचे के नहीं हो सकता था। बुद्धि और संगठन का एक ठीक तालमेल खड़े किए बिना देश में इतने सारे तालाब न तो बन सकते थे, न टिक ही सकते थे। यह संगठन कितना चुस्त, दुरुस्त रहा होगा, इस प्रश्न का उत्तर दक्षिण की एक झलक से मिलता है।
दक्षिण में सिंचाई के लिए बनने वाले तालाब एरी कहलाते हैं। गांव-गांव में एरी थीं और उपेक्षा के २०० बरसों के इस दौर के बावजूद इनमें से हज़ारों एरियां आज भी सेवा कर रही हैं। गांव में पंचायत के भीतर ही एक और संस्था होती थी : एरी वार्यम्। एरी वार्यम् में गांव के छह सदस्यों की एक वर्ष के लिए नियुक्ति होती थी। एरी से संबंधित हरेक काम - एरी बनाना, उसका रखरखाव, सिंचाई की उचित और निष्पक्ष व्यवस्था और इन सब कामों के लिए सतत् साधन जुटाना वार्यम् के ज़िम्मे होता था। RԿ आज भी खरे हैं