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वार्यम् के छह सदस्य इन कामों को ठीक से नहीं कर पाएं तो उन्हें नियुक्ति की अवधि से पहले भी हटाया जा सकता था ।
यहां एरी बनाने का काम वोद्दार करते थे। सिंचाई की पूरी व्यवस्था के लिए एक पद होता था। इसे अलग-अलग क्षेत्र में नीरघंटी, नीरगटी नीरआनी, कबककट्टी और माइयन थोट्टी के नाम से जाना जाता था। तालाब में कितना पानी है, कितने खेतों में सिंचाई होनी है, पानी का कैसा बंटवारा करना है- ये सारे काम नीरघंटी करते थे। नीरघंटी का पद अनेक क्षेत्रों में सिर्फ हरिजन को ही दिया जाता था और सिंचाई के मामले में उनका निर्णय सर्वोपरि रहता था। किसान कितना भी बड़ा क्यों न हो, इस मामले में नीरघंटी से छोटा ही माना जाता था ।
एक तरफ दक्षिण में नीरघंटी जैसे हरिजन थे तो पश्चिम में पालीवाल जैसे ब्राह्मण भी थे। जैसलमेर, जोधपुर के पास दसवीं सदी में पल्ली नगर में बसने के कारण ये पल्लीवाल या पालीवाल कहलाए। इन ब्राह्मणों को मरुभूमि में बरसने वाले थोड़े-से पानी को पूरी तरह से रोक लेने का अच्छा कौशल सध गया था। वे खडीन के अच्छे निर्माता थे। मरुभूमि का कोई ऐसा बड़ा टुकड़ा जहां पानी बह कर आता हो, वहां दो या तीन तरफ से मेंडबंदी कर पानी रोक कर विशिष्ट ढंग से तैयार बांधनुमा खेत को मरुभूमि में सैंकड़ों मन अनाज इन्हीं खडीनों में पैदा किया जाता रहा है। आज भी जोधपुर, जैसलमेर, बाड़मेर क्षेत्र में सैंकड़ों खडीन खड़ी हैं।
लेकिन पानी के काम के अलावा स्वाभिमान भी क्या होता है, इसे पालीवाल ही जानते थे। जैसलमेर में न जाने कितने गांव पालीवालों के थे। राजा से किसी समय विवाद हुआ। बस, रातों-रात पालीवालों के गांव खाली हो गए। एक से एक कीमती, सुन्दर घर, कुएं खडीन सब छोड़कर पालीवाल राज्य से बाहर हो गए। आज उनके वीरान गांव और घर जैसलमेर में पर्यटक को गाइड बड़े गर्व से दिखाते हैं। पालीवाल वहां से निकल कर कहां-कहां गए, इसका ठीक अंदाज़ नहीं है पर एक मुख्य धारा आगरा और जौनपुर में जा बसी थी।
महाराष्ट्र में चितपावन ब्राह्मण भी तालाब बनाने से जुड़े थे। कुछ दूसरे ब्राह्मणों को यह ठीक नहीं लगा कि ब्राह्मण मिट्टी खोदने और ढोने के काम में लगें। कथा है वासुदेव चितले नामक चितपावन ब्राह्मण की। वासुदेव ने कई तालाब, बावड़ी और कुएं बनाए थे। जब वे परशुराम क्षेत्र में एक

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आज भी खरे हैं तालाब