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३४ आज भी खरे हैं तालाब

पत्थर, छेद और कील पद्धति से जोड़े जाते थे। इसमें एक पत्थर में छेद छोड़ते और दूसरे में उसी आकार की कील अटा देते थे। कभी-कभी बड़े पत्थर लोहे की पत्ती से जोड़ते थे। ऐसी पट्टी जोंकी या अकुंडी कहलाती थी। पत्थर के पाट, पाल की मिट्टी को आगर में आने से रोकते हैं। पत्थरों से पटा यह इलाका पठियाल कहलाता है। पठियाल पर सुंदर मंदिर, बारादरी, छतरी और घाट बनाने का चलन है।

तालाब और पाल का आकार काफ़ी बड़ा हो तो फिर घाट पर पत्थर की सीढ़ियां भी बनती हैं। कहीं बहुत बड़ा और गहरा तालाब है तो सीढ़ियों की लंबाई और संख्या भी उसी अनुपात में बढ़ जाती है। ऐसे में पाल की तरह इन सीढ़ियों को भी मज़बूती देने का प्रबंध किया जाता है। ऐसा न करें तो फिर पानी सीढ़ियों को काट सकता है। इन्हें सहारा देने बीच-बीच में बुर्जनुमा, चबूतरे जैसी बड़ी सीढ़ियां बनाई जाती हैं। हर आठ या दस सीढ़ियों के बाद आने वाला यह ढांचा हथनी कहलाता है।

ऐसी ही किसी हथनी की दीवार में एक बड़ा आला बनाया जाता है और उसमें घटोइया बाबा की प्रतिष्ठा की जाती है। घटोइया देवता घाट की रखवाली करते हैं। प्राय: अपरा की ऊंचाई के हिसाब से इनकी स्थापना होती है। इस तरह यदि आगौर में पानी ज़्यादा बरसे, आगर में पानी का

पाल की कोहनी