३९ आज भी खरे है तालाब
का होता है। पानी की तरफ की दीवार में ज़रूरत के हिसाब से दो-तीन छेद अलग-अलग ऊंचाई पर किए जाते हैं। छेद का आकार एक बित्ता या उतना, जितना किसी लकड़ी के लट्ठे से बंद हो जाए। सामने वाली दीवार में फिर इसी तरह के छेद होते हैं, लेकिन सिर्फ नीचे की तरफ। इनसे पाल के उस पार नाली से पानी बाहर निकाला जाता है। हौज़ की गहराई आठ से बारह हाथ होती है और नीचे उतरने के लिए दीवार पर एक-एक हाथ पर पत्थर के टुकड़े लगे रहते हैं।
इस ढांचे के कारण पानी की डाट खोलने तालाब के पानी में नहीं उतरना पड़ता। बस सूखे हौज़ में पत्थरों के टुकड़ों के सहारे नीचे उतर कर जिस छेद को खोलना है, उसकी डाट हटा कर पानी चालू कर दिया जाता है। पाल की तरफ वाली नाली से वह बाहर आने लगता है। डाट से मिलते-जुलते ढांचे राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और गोवा तक मिलते हैं। नाम ज़रूर बदल जाते हैं जैसे: चुकरैंड, चुरंडी, चौंडा, चुंडा और उरैंड। सभी में पानी बाहर उंडेलने की क्रिया है और इसलिए ये सारे नाम उंडेलने की ही झलक दिखाते हैं।
तालाब से नहर में उंडेला गया पानी ढलान से बहाकर दूर-दूर ले जाया जाता है। पर कुछ बड़े तालाबों में, जहां मोखी के पास पानी का दबाव बहुत ज्यादा रहता है, वहां इस दबाव का उपयोग नहर में पानी ऊपर चढ़ाने के लिए भी किया जाता है। इस तरह मोखी से निकला पानी कुछ हाथ ऊपर उठ कर फिर नहर की ढाल पर बहते हुए न सिर्फ ज्यादा दूर तक जाता है, वह कुछ ऊपर बने खेतों में भी पहुंच सकता है।
मुख्य नहर के दोनों ओर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर कुएं भी बनाए जाते हैं। इनमें रहट लगा कर फिर से पानी उठा लिया जाता है। तालाब, नहर और कुआं तथा रहट की यह शानदार चौकड़ी एक के बाद एक कई खेतों को सिंचाई से जोड़ती चलती है। यह व्यवस्था बुंदेलखंड में चंदेलों-बुंदेलों के समय बने एक-एक हजार एकड़ के बरुआ—