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पहन कर आना मना है', 'थूकना मना है' जैसे बोर्ड नहीं ठोंके जाते थे पर सभी लोग बस स्तंभ देखकर इन बातों का पूरा-पूरा ध्यान रखते थे।

आगर के पानी की साफ-सफाई और शुद्धता बनाए रखने का काम भी पहले दिन से ही शुरु हो जाता था। नए बने तालाब में जिस दिन पानी भरता, उस दिन समारोह के साथ उसमें जीव-जंतु लाकर छोड़े जाते थे। इनमें मछलियां, कछुए, केकड़े और अगर तालाब बड़ा और गहरा हो तो मगर भी छोड़े जाते थे। कहीं-कहीं जीवित प्राणियों के साथ सामर्थ्य के अनुसार चांदी या सोने तक के जीव-जन्तु विसर्जित किए जाते थे। छत्तीसगढ़ के रायपुर शहर में अभी कोई पचास-पचपन बरस पहले तक तालाब में सोने की नथ पहनाकर कछुए छोड़े गए थे।

पहले वर्ष में कुछ विशेष प्रकार की वनस्पति भी डाली जाती थी। अलग-अलग क्षेत्र में इनका प्रकार बदलता था पर काम एक ही था पानी को साफ रखना। मध्य प्रदेश में यह गदिया या चीला थी तो राजस्थान में कुमुदिनी, निर्मली या चाक्षुष। चाक्षुष से ही चाकसू शब्द बना है। कोई एक ऐसा दौर आया होगा कि तालाब के पानी की साफ-सफाई के लिए चाकसू पौधे का चलन खूब बढ़ गया होगा। आज के जयपुर के पास एक बड़े कस्बे का नाम चाकसू है। यह नामकरण शायद चाकसू पौधे के प्रति कृतज्ञता जताने के लिए किया गया हो।

पाल पर पीपल, बरगद और गूलर के पेड़ लगाए जाते रहे हैं। तालाब और इन पेड़ों के बीच उम्र को लेकर हमेशा होड़-सी दिखती थी। कौन ज़्यादा टिकता है–पेड़ या तालाब? लेकिन यह प्रश्न प्रायः अनुत्तरित ही रहा है। दोनों को एक दूसरे का लंबा संग इतना भाया है कि उपेक्षा के इस ताज़े दौर में जो भी पहले गया, दूसरा शोक में उसके पीछे-पीछे चला गया है। पेड़ कटे हैं तो तालाब भी कुछ समय में सूखकर पट गया है और यदि पहले तालाब नष्ट हुआ है तो पेड़ भी बहुत दिन नहीं टिक पाए हैं।

तालाबों पर आम भी खूब लगाया जाता रहा है, पर यह पाल पर कम, पाल के नीचे की ज़मीन में ज़्यादा मिलता है। छत्तीसगढ़ क्षेत्र में बहुत से तालाबों में शीतला माता का वास माना गया है और इसलिए ऐसे तालाबों की पाल पर नीम के पेड़ ज़रूर लगाए जाते रहे हैं। बिना पेड़ की पाल की तुलना बिना मूर्ति के मंदिर से भी की गई है।

बिहार और उत्तर प्रदेश के अनेक भागों में पाल पर अरहर के पेड़ भी लगाए जाते थे। इन्हीं इलाकों में नए बने तालाब की पाल पर कुछ

४२ आज भी खरे हैं तालाब