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थे। यह पद दक्षिण में सिर्फ हरिजन परिवार को मिलता था। तालाब का जल स्तर देखकर खेतों में उसके न्यायोचित बंटवारे के बारीक हिसाब-किताब की विलक्षण क्षमता नीरुकुट्टी को विरासत में मिलती थी। आज के कुछ नए समाजशास्त्रियों का कहना है कि हरिजन परिवार को यह पद स्वार्थवश दिया जाता था। इन परिवारों के पास भूमि नहीं होती थी इसलिए भूमिवानों के खेतों में पानी के किसी भी विवाद में वे निष्पक्ष हो कर काम कर सकते थे। यदि सिर्फ भूमिहीन होना ही योग्यता का आधार था तो फिर भूमिहीन ब्राह्मण तो सदा मिलते रह सकते थे। लेकिन इस बात को यहीं छोड़ें और फिर लौटें मान्यम् पर।

कई तालाबों का पानी सिंचाई के अलावा पीने के काम भी आता था। ऐसे तालाबों से घरों तक पानी लेकर आने वाले कहारों के लिए उरणी मान्यम् से वेतन जुटाया जाता था।

उप्पार और वादी मान्यम् से तालाबों की साधारण टूट-फूट ठीक की जाती थी। वायक्कल मान्यम् तालाब के अलावा उनसे निकली नहरों की देखभाल में खर्च होता था। पाल से लेकर नहरों तक पर पेड़ लगाए जाते थे और पूरे वर्ष भर उनकी सार-संभाल, कटाई, छंटाई आदि का काम चलता रहता था। यह सारी ज़िम्मेदारी मानल मान्यम् से पूरी की जाती थी।

खुलगा मान्यम् और पाटुल मान्यम् मरम्मत के अलावा क्षेत्र में बनने वाले नए तालाबों की खुदाई में होने वाले खर्च संभालते थे।

एक तालाब से जुड़े इतने तरह के काम, इतनी सेवाएं वर्ष भर ठीक से चलती रहें—यह देखना भी एक काम था। किस काम में कितने लोगों को लगाना है, कहां से कुछ को घटाना है—यह सारा संयोजन करैमान्यम् से पूरा किया जाता था। इसे कुलम वेट्टू या कण्मोई वेट्टू भी कहते थे।

दक्षिण का यह छोटा और साधारण-सा वर्णन तालाब और उससे जुड़ी पूरी व्यवस्था की थाह नहीं ले सकता। यह तो अथाह है। ऐसी ही या इससे मिलती जुलती व्यवस्थाएं सभी हिस्सों में, उत्तर में, पूरब-पश्चिम में भी रही ही होंगी। पर कुछ काम तो गुलामी के उस दौर में टूटे और फिर विचित्र आज़ादी के इस दौर में फूटे समाज में यह सब बिखर गया।

लेकिन गैंगजी कल्ला जैसे लोग इस टूटे-फूटे समाज में बिखर गई व्यवस्था को अपने ढंग से ठीक करने आते रहे हैं।

नाम तो था गंगाजी पर फिर न जाने कैसे वह गैंगजी हो गया। उनका नाम स्नेह, आत्मीयता के कारण बिगड़ा या घिसा होगा लेकिन उनके शहर

४६ आज भी खरे हैं तालाब