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इतना अधिक था कि गांव अपने ऊपर के पहाड़ों में ३० से ४० तक चाल बना लेते थे।

चाल कोई ३० कदम लंबी, इतनी ही चौड़ी और कोई चार-पांच हाथ गहरी होती थी। यह किसी एक हिस्से के ज़िम्मे नहीं होती, सभी इसे बनाना जानते थे और सभी इसकी सफाई में लगते थे। ये निस्तार के काम आतीं, गांव के पशुओं के अलावा वन्य पशुओं के लिए भी पानी जुटाती थीं।

हिमालय में चाल कहीं खाल है, कहीं तोली है तो कहीं चौरा भी। आसपास के गांव इन्हीं के नाम से जाने जाते हैं। जैसे उफरेंखाल या रानीचौरा और दूधातोली। ठेठ उत्तर के ये शब्द दक्षिण तक चले जाते हैं। केरल और आंध्र प्रदेश में चैर और चेरुवू शब्द तालाब के अर्थ में ही पाए जाते हैं।

चौकोर पक्के घाट से घिरे तालाब चोपरा या चौपरा और र का ड़ होकर चौपड़ा भी कहलाते हैं। चौपड़ा उज्जैन जैसे प्राचीन शहर में, झांसी जैसे ऐतिहासिक शहर में तथा चिरगांव जैसे साहित्यिक स्थान में भी हैं।

चौपरा से ही मिलता-जुलता एक नाम चौघरा है। चारों तरफ से अच्छे-पक्के घाटों से घिरा तालाब चौघरा कहलाता है। इसी तरह तिघरा भी है। इसमें एक तरफ, संभवतः आगौर की तरफ का भाग कच्चा छोड़ दिया जाता था। चार घाट और तीन घाट से एकदम आगे बढकर अठघट्टी पोखर भी होते थे। यानी आठ घाट वाले। अलग अलग घाटों का अलग-अलग उपयोग होता था। कहीं अलग-अलग जातियों के लिए अलग-अलग तालाब बनते थे तो कहीं एक ही बड़े तालाब पर विभिन्न जातियों के लिए अलग-अलग घाट बना देते। इसमें स्त्री और पुरुषों के नहाने के लिए भी अलग प्रबन्ध होता। छत्तीसगढ़ में डौकी घाट महिलाओं के लिए तो डौका घाट पुरुषों के लिए बनते थे। कहीं गणेशजी तो कहीं मां दुर्गा सिराई जाती तो कहीं ताज़िए। सबके अलग घाट। इस तरह के तालाबों में आठ घाट बन जाते और वे फिर अठघट्टी कहलाते थे।

अठघट्टी ताल तो दूर से चमक जाते पर गुहिया पोखर वहां पहुंचने पर ही दिखते थे। गुहिया यानी गुह्य, छिपे हुए पोखर। ये आकार में छोटे होते और प्रायः बरसाती पानी के जमा होने से अपने आप बन जाते थे। बिहार में दो गांव के बीच निर्जन क्षेत्र में अभी भी गुहिया पोखर मिलते हैं।

अपने आप बने ऐसे ही तालाबों का एक और नाम है अमहा ताल। छत्तीसगढ़ी में अमहा का अर्थ है अनायास। गांवों से सटे घने वनों में

५१ आज भी खरे हैं तालाब