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सूखने के बाद इसमें खेती शुरु हुई, तबसे आज तक इसमें उम्दा किस्म का गेहूं पैदा होता चला आ रहा है।

बड़ों की बात छोड़ें, लौटकर आएं छोटे तालाब पर। उथले, कम गहरे, छोटे आकार के तालाब चिखलिया कहलाते थे। यह नाम चिखड़ यानी कीचड़ से बना था। ऐसे तालाबों का एक पराना नाम डाबर भी था। आज उसका बचा रूप डबरा शब्द में देखने को मिलता है। बाई या बाव भी ऐसे ही छोटे तालाबों का नाम था। बाद में यह नाम तालाब से हट कर बावड़ी में आ लगा। दिल्ली में कुतुब मीनार के पास राजों की बाव नामक बावड़ी आज इस शब्द की तरह ही पुरानी पड़ चुकी है।

पुराने पड़ गए नामों में निवाण, हृद, कासार, तड़ाग, ताम्रपर्णी, ताली, तल्ल भी याद किए जा सकते हैं। इनमें तल्ल एक ऐसा नाम है जो समय के लंबे दौर को पार कर बंगाल और बिहार में तल्ला के रूप में आज भी पाया जाता है। इसी तरह पुराना होकर डूब चुका जलाशय नाम अब सरकारी हिन्दी और सिंचाई विभाग में फिर से उबर आया है। कई जगह बहुत पुराने तालाबों के पुराने नाम यदि समाज को याद रखने लायक नहीं लगे तो वे मिट जाते और उन्हें फिर एक नया नाम मिल जाताः पुरनैहा, यानी काफी पुराना तालाब। आसपास के तालाबों की गिनती में सबसे अंत में बने तालाब नवताल, नौताल, नया ताल कहलाने लगते। वे पुराने भी पड़ जाते तो भी इसी नाम से जाने जाते।

गुचकुलिया ऐसे तालाब को कहते हैं जो होता तो छोटा ही है पर जो किनारे से ही गहरा हो जाता है। पल्वल भी ऐसे ही गहरे तालाब का पुराना नाम था। समय की तेज़ रफ़्तार में यह नाम भी पीछे छूट गया है। आज इसकी याद दिल्ली के पास एक छोटे से कस्बे और ऐसे स्टेशन पलवल के रूप में बच गई है, जिस पर रेलगाड़ियां बिना रुके दौड़ जाती हैं।

खदुअन छत्तीसगढ़ में ऐसे तालाबों को कहा जाता है, जिनका पानी बेहद साफ रहता है और पीने के काम में आता है। पनखत्ती तालाब केवल निस्तारी के काम आते हैं। इसी तरह लेंड्या ताल और खुर ताल निस्तारी, दिशा मैदान और पशुओं को पानी पिलाने के लिए होते हैं।

अलग-अलग स्वतंत्र रूप से बने तालाबों के अलावा कहीं-कहीं एक दूसरे से जुड़े तालाबों की सांकल बनाई जाती थी। एक का अतिरिक्त पानी दूसरे में, दूसरे का तीसरे में...। यह तरीका कम वर्षा वाले राजस्थान और आंध्र के रायलसीमा क्षेत्र में, औसत ठीक वर्षा वाले बुदेलखंड और मालवा

५३ आज भी खरे हैं तालाब