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अमर सागर की 'तैरती' बेरियॉं

इस कड़ी की मज़बूती सिर्फ राजाओं, रावलों, महारावलों पर नहीं छोड़ी गई थी। समाज के वे अंग भी, जो आज की परिभाषा में आर्थिक रूप से कमज़ोर माने जाते हैं, तालाबों की कड़ी को मज़बूत बनाए रखते थे।

मेघा ढोर चराया करता था। यह किस्सा ५०० बरस पहले का है। पशुओं के साथ मेघा भोर सुबह निकल जाता। कोसों तक फैला सपाट रेगिस्तान। मेघा दिन भर का पानी अपने साथ एक कुपड़ी, मिट्टी चपटी सुराही में ले जाता। शाम वापस लौटता। एक दिन कुपड़ी में थोड़ा-सा पानी बच गया। मेघा को न जाने क्या सूझा, उसने एक छोटा-सा गड्ढा किया, उसमें कुपड़ी का पानी डाला और आक के पत्तों से गड्ढे को अच्छी तरह ढंक दिया। चराई का काम। आज यहां, कल कहीं और। मेघा दो दिन तक उस जगह पर नहीं जा सका। वहां वह तीसरे दिन पहुंच पाया। उत्सुक हाथों ने आक के पते धीरे से हटाए। गड्ढे में पानी तो नहीं था पर ठण्डी हवा आई। मेघा के मुंह से शब्द निकला– 'भाप'। मेघा ने सोचा कि यहां इतनी गर्मी में थोड़े से पानी की नमी बची रह सकती है तो फिर यहां तालाब भी बन सकता है।

मेघा ने अकेले ही तालाब बनाना शुरु किया। अब वह रोज़ अपने साथ कुदाल-तगाड़ी भी लाता। दिन भर अकेले मिट्टी खोदता और पाल पर डालता। गाएं भी वहीं आसपास चरती रहतीं। भीम जैसी शक्ति नहीं थी, लेकिन भीम की शक्ति जैसा संकल्प था मेघा के पास। दो वर्ष तक वह अकेले ही लगा रहा। सपाट रेगिस्तान में पाल का विशाल घेरा अब दूर से ही दिखने लगा था। पाल की खबर गांव को भी लगी।

अब रोज़ सुबह गांव से बच्चे और दूसरे लोग भी मेघा के साथ आने लगे। सब मिलकर काम करते। १२ साल हो गए थे, अब भी विशाल

७० आज भी खरे हैं तालाब