अंग्रेज़ विभागों की अदला-बदली के बीच तालाबों से मिलने वाला राजस्व बढ़ाते गए और रख-रखाव की राशि छांटते-काटते गए। अंग्रेज़ इस काम के लिए चंदा तक मांगने लगे जो फिर जबरन वसूली तक चला गया।
इधर दिल्ली तालाबों की दुर्दशा की नई राजधानी बन चली थी। अंग्रेज़ों के आने से पहले तक यहां ३५० तालाब थे। इन्हें भी राजस्व के लाभ-हानि की तराजू पर तौला गया और कमाई न दे पाने वाले तालाब राज के पलड़े से बाहर फेंक दिए गए।
उसी दौर में दिल्ली में नल लगने लगे थे। इसके विरोध की एक हल्की-सी सुरीली आवाज सन् १९०० के आसपास विवाहों के अवसर पर गाई जाने वाली 'गारियों', विवाह-गीतों में दिखी थी। बारात जब पंगत में बैठती तो स्त्रियां "फिरंगी नल मत लगवाय दियो" गीत गातीं। लेकिन नल लगते गए और जगह-जगह बने तालाब, कुएं और बावड़ियों के बदले अंग्रेज़ द्वारा नियंत्रित 'वाटर वर्क्स' से पानी आने लगा।
पहले सभी बड़े शहरों में और फिर धीरे-धीरे छोटे शहरों में भी यही स्वप्न साकार किया जाने लगा। पर केवल पाईप बिछाने और नल की टोंटी लगा देने से पानी नहीं आता। यह बात उस समय नहीं लेकिन आजादी के कुछ समय बाद धीरे-धीरे समझ में आने लगी थी। सन् १९७० के बाद तो यह डरावने सपने में बदलने लगी थी। तब तक कई शहरों के तालाब उपेक्षा की गाद से पट चुके थे और उन पर नए मोहल्ले, बाजार, स्टेडियम खड़े हो चुके थे।
पर पानी अपना रास्ता नहीं भूलता। तालाब हथिया कर बनाए गए
८३ आज भी खरे हैं तालाब