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संस्थाएं हैं। जिले और संभाग के मुख्यालय हैं, पुलिस प्रशिक्षण केन्द्र है, सेना के महार रेजिमेंट का मुख्यालय है, नगर पालिका है और सर हरिसिंह गौर के नाम पर बना विश्वविद्यालय है। एक बंजारा यहां आया और विशाल सागर बना कर चला गया लेकिन नए समाज की ये साधन संपन्न संस्थाएं इस सागर की देखभाल तक नहीं कर पाईं! आज सागर तालाब पर ग्यारह शोध प्रबंध पूरे हो चुके हैं, डिग्रियां बंट चुकी हैं पर एक अनपढ़ माने गए बंजारे के हाथों बने सागर को पढ़ा-लिखा माना गया समाज बचा तक नहीं पा रहा है।

उपेक्षा की इस आंधी में कई तालाब फिर भी खड़े हैं। देश भर में कोई आठ से दस लाख तालाब आज भी भर रहे हैं और वरुण देवता का प्रसाद सुपात्रों के साथ-साथ कुपात्रों में भी बांट रहे हैं। उनकी मज़बूत बनक इसका एक कारण है पर एकमात्र कारण नहीं। तब तो मज़बूत पत्थर के बने पुराने किले खंडहरों में नहीं बदलते। कई तरफ से टूट चुके समाज में तालाबों की स्मृति अभी भी शेष है। स्मृति की यह मज़बूती पत्थर की मज़बूती से ज़्यादा मज़बूत है।

छत्तीसगढ़ के गांवों में आज भी छेर छेरा के गीत गाए जाते हैं और उससे मिले अनाज से अपने तालाबों की टूट-फूट ठीक की जाती है। आज भी बुंदेलखंड में कजलियों के गीत में उसके आठों अंग डूब सकें—ऐसी कामना की जाती है। हरियाणा के नारनौल में जात उतारने के बाद माता-पिता तालाब की मिट्टी काटते हैं और पाल पर चढ़ाते हैं। न जाने कितने शहर, कितने सारे गांव इन्हीं तालाबों के कारण टिके हुए हैं। बहुत-सी नगर पालिकाएं आज भी इन्हीं तालाबों के कारण पल रही हैं और सिंचाई विभाग इन्हीं के दम पर खेतों को पानी दे पा रहे हैं। अलवर जिले के बीजा की डाह जैसे अनेक गांवों में आज भी सागरों के वही नायक नए तालाब भी खोद रहे हैं और पहली बरसात में उन पर रात-रात भर पहरा दे रहे हैं। उधर रोज़ सुबह-शाम घड़सीसर में आज भी सूरज मन भर सोना उंडेलता है।

कुछ कानों में आज भी यह स्वर गूंजता है:

"अच्छे-अच्छे काम करते जाना।"

८६ आज भी खरे हैं तालाब