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पाल के किनारे रखा इतिहास

खरे सोने से बने तालाबों की कहानी सन् १९०७ के गजेटियर का अपवाद छोड़ दें तो इतिहास की किसी और अंग्रेज़ी पुस्तक में नहीं मिलती। लेकिन मध्य प्रदेश के रीवा, सतना, जबलपुर और मंडला जिलों में यह कहानी गांव-गांव में तालाबों पर सुनाई देती है। इस तरह यह सचमुच पाल के किनारे रखा इतिहास है।

श्री भूपतसिंह द्वारा लिखी गई पुस्तक 'पाटन तहसील के स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास' में इस कहानी का विस्तृत विवरण मिलता है। इस विवरण में कहानी में वर्णित चार विशाल तालाबों में से एक कुंडम तालाब से निकलने वाली हिरन नामक नदी की कथा भी विस्तार से दी गई है।

इस क्षेत्र का परिचय और यहां दी गई जानकारियां हमें जनसत्ता, नई दिल्ली के श्री मनोहर नायक से प्राप्त हुई हैं।

श्री वृंदावनलाल वर्मा के उपन्यास 'रानी दुर्गावती' में भी बुंदेलखंड क्षेत्र में पारस से बनने वाले तालाबों का उल्लेख एक अलग अर्थ में मिलता है।

जबलपुर प्राधिकरण द्वारा सन् १९७७ में प्रकाशित जबलपुर स्मारक ग्रंथ में भी इस कथा की झलक है। जबलपुर के पास ही सन् १९३९ में हुए प्रसिद्ध त्रिपुरी कांग्रेस सम्मेलन के अवसर पर छपी 'त्रिपुरी कांग्रेस गाइड' में भी इस कथा में वर्णित क्षेत्र के कई भव्य तालाबों का विवरण दिया गया था। आजादी की लड़ाई के बीच आयोजित इस ऐतिहासिक सम्मेलन में, जहां श्री सुभाषचंद्र बोस और श्री पट्टाभि सीतारमैया जैसे नेता उपस्थित थे, वहां भी तालाबों का उल्लेख अप्रासंगिक नहीं माना गया था।

पर इस प्रसंग की तुलना कीजिए, सन् १९९१ के तिरुपति कांग्रेस अधिवेशन से। जल संकट से घिरे कठिन दौर में आयोजित इस सम्मेलन का पंडाल कभी के एक भव्य पर अब सूख चुके अविलल नामक तालाब के आगर पर ही ताना गया था। आगर की नमी के कारण पंडाल के भीतर का तापमान बाहर की गर्मी से ४ अंश कम था। लेकिन इस अधिवेशन में उपस्थित हमारे नए आत्ममुग्ध नेताओं ने देश के सामने छाए तरह-तरह के संकटों से पार उतरने में लोकबुद्धि पर कोई भरोसा नहीं जताया। इसी तरह सन् १९९३ का कांग्रेस अधिवेशन भी दिल्ली की सीमा पर सूरजकुंड में हुआ था। वह ऐतिहासिक तालाब भी आज लगभग पट चुका है। तालाबों की सर्वत्र की जा रही उपेक्षा के अनुपात में ही पानी का संकट बढ़ता जा रहा है।

८८ आज भी खरे हैं तालाब