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वाले शिल्पी परिवार को ठीक तरह से समझने में इस पुस्तक की भूमिका बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकती है।

उड़ीसा के महापात्र और उनसे जुड़े शिल्पी परिवार आज भी पुरी और भुवनेश्वर में बसे हैं। इन्हीं के पूर्वजों ने जगन्नाथपुरी और भुवनेश्वर के सुन्दर मंदिरों का निर्माण किया था।

अनंगपाल की दिल्ली और उस काल में, ११वीं सदी में महरौली के पास बने अनंगताल नामक तालाब को पुरातत्व विभाग ने १९९२ में ढूंढ निकाला है। योगमाया मंदिर के पीछे चल रही खुदाई अभी पूरी नहीं हुई है, लेकिन पत्थर की कई विशाल सीढ़ियों से सजे एक गहरे, लम्बे-चौड़े तालाब का आकार उभरने लगा है।

भूमि में गहरे जल को 'देखने' वाले सिरभावों के बारे में बीकानेर के श्री नारायण परिहार और श्री पूनमचंद तथा नरसिंहपुर, मध्य प्रदेश के किसान श्री केशवानंद मिश्र से जानकारी मिली है।

पथरोट, टकारी, मटकूट, सोनकर जैसे नाम और शब्द धीरे-धीरे भाषा से हटते गए हैं, इसलिए नए शब्दकोषों में ये नहीं मिलते। इनकी सूचना हमें इन शब्दों की तरह ही पुराने पड़ गए शब्दकोषों से मिली है।

वनवासी समाज पर यों कहने को बहुत से शोध ग्रंथ हैं पर ये ज्यादातर खान-पान, रहन-सहन का वर्णन करते हैं, वह भी कुछ ऐसी शैली में मानो इनका अन्न-जल कुछ अलग रहा हो। भद्दे किस्म के कुतुहल या एक विचित्र उपकार की भावना से भरे ऐसे साहित्य में वनवासी समाज के उत्कृष्ट गुणों, पानी से संबंधित तकनीकी कौशल की झलक मिलना संभव नहीं है। इस गुण की संक्षिप्त झलक हमें भील सेवा संघ से प्रकाशित 'भोगीलाल पंड्या स्मृति ग्रंथ' में मिली है। बंजारों के संदर्भ में शाहजहां के वजीर का प्रसंग बरार क्षेत्र के पुराने दस्तावेजों में देखने मिल सकता है। इनमें श्री ए.सी. लायल द्वारा तैयार किया गया बरार जिला गजेटियर, सन् १८७० और बरार सेंसस् सन् १८८१ उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं।

मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड और छत्तीसगढ़ में बंजारों द्वारा बनाए गए तालाबों की सूचनाएं हमें श्री पंकज चतुर्वेदी, महोबा नाका, छतरपुर, मध्यप्रदेश तथा श्री राकेश दीवान से मिली हैं।

ओढ़ियों के बारे में मौखिक जानकारी श्री दीनदयाल ओझा से तथा लिखित जानकारी दिल्ली के श्री मुहम्मद शाहिद के सौजन्य से प्राप्त 'जाति भास्कर' नामक एक दुर्लभ पुस्तक से ली गई है। यह पुस्तक मुरादाबाद निवासी विद्यावारिधि पंडित ज्वालाप्रसाद मिश्र

९४ आज भी खरे हैं तालाब