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पृष्ठ:Antarrashtriya Gyankosh.pdf/१४९

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तिलक
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जून सन् १९०८ को दफा १२४ ए॰ (राजद्रोह) और १५३ ए॰ (जातिगतविद्वेष) के अभियोग में गिरफ़्तार किया गया और उनकी ५३वी वर्षगाँठ से एक दिन पूर्व, ६ वर्ष के लिए निर्वासन और १०००) जुर्माना का दण्ड दिया गया। मुक़दमे के दौरान में उन्होने जो बयान दिया वह बहुत मार्मिक था। लोकमान्य ने कहाः—मैं केवल यह कहना चाहता हूँ कि यद्यपि जूरी ने मुझे अपराधी ठहराया है, किन्तु मैं बलपूर्वक कहता हूँ कि मैं निर्दोष हूँ। विश्व में एक महती शक्ति भी है जो भौतिक जगत् का सूत्र-संचालन करती है, और सम्भवतः विधाता का ऐसा ही विधान हो कि वह उद्देश, जिसका मैं प्रतिनिधित्व करता हूँ, मेरे स्वतन्त्र रहने की अपेक्षा मेरे कष्ट-सहन द्वारा अधिकाधिक फलीभूत होगा।' लोकमान्य माडले (ब्रह्मा) के क़िले में एक लकड़ी के बने कटघरे में बन्दी बनाकर रखे गये। इस बन्दीगृह में उन्होने कठिन यातनाएँ भोगी। परन्तु कर्मयोगी तिलक ने इन यातनाओं की तनिक भी चिन्ता न कर अपना समय स्वाध्याय और चिन्तन में बिताया। अपना सबसे लोकप्रिय तथा सुप्रसिद्ध ग्रन्थ "गीतारहस्य" उन्होने इसी बन्दीगृह में लिखा। जून १९१४ में वह रिहा हुए।

२३ अप्रैल १९१६ को उन्होने पूना में होमरूल-लीग की स्थापना की। सूरत के बाद सन् '१६ के लखनऊ अधिवेशन में लोकमान्य पुनः कांग्रेस में सम्मिलित हुए। १९०७ से बिछुडे हुए कांग्रेस के दोनों दल एक हुए, हिन्दू-मुस्लिम ऐक्य के लिए कांग्रेस-लीग योजना स्वीकृत हुई; स्वराज्य की योजना बनी। इन सबमे, विशेषकर, साम्प्रदायिक-योजना के निपटारे मे लोकमान्य का बहुत हाथ था। वास्तव में भारत में राष्ट्रीयता का क्षेत्र तैयार करके बीज वपन करने का समस्त श्रेय लोकमान्य को है। "स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार और हम इसे लेकर रहेंगे"—यह मूलमन्त्र करोड़ों भारतीयो को उन्होने ही पढ़ाया। राष्ट्रीय-भावना को वह सबल अकुरित रूप में छोड़ गये।

लोकमान्य राजनीतिक अग्रणी ही नही, समाज-सुधारक और ज्योतिष तथा आयुर्वेद के विद्वान् भी थे। वर्णव्यवस्था के वर्तमान रूप को उन्होने वेद-विरुद्ध ठहराया था। वह जात-पाँत के विरोधी थे

सर वेलेंटैन शिरोल ने अपनी 'भारत में अशान्ति' (Unrest in