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नार्वे
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से था। आरम्भ मे इस दल ने तृतीय अन्तर्राष्ट्रीय (साम्यवादी–कम्युनिस्ट) दल से सम्बन्धित होना तय किया था। सन् १९३५ से मज़दूर-दल की सरकार रही। पार्लमेन्ट मे कृषक, प्रजासत्ता और साम्यवाद-विरोधी दक़ियानूसी दल भी थे। मज़दूर सरकार ने किसानो तथा मज़दूरो के सुधार के लिए कार्य किया। परन्तु आर्थिक व्यवस्था में कोई मौलिक परिवर्तन नही हुआ। नार्वे का प्रधान व्यवसाय सामुद्रिक व्यापार है। उसके पास व्यापारी जलयानो का ४०,००,००० टन का बेड़ा था।

१९३९ ई० के सोवियत-फ़िनलैण्ड-युद्ध में नार्वे की सहानुभूति फिनलैण्ड के साथ थी। उसको रसद देकर तथा उसके वालटियरो को अपने देश से मार्ग देकर इसने सहायता की। परन्तु फिनलैण्ड के लिए मित्रराष्ट्रो की पलटन को उसने रास्ता नही दिया। वर्त्तमान युद्ध मे, सदैव की भॉति, नार्वे तटस्थ था; किन्तु उसे लड़ाई में घसीटा गया। ८ अप्रैल १९४० को मित्र राष्ट्रो ने, जर्मन मार्गावरोध के लिए, नार्वेजियन-समुद्रतट के साथ-साथ नार्विक, वोडोई तथा स्ट्रैटलैण्ड नामक तीन स्थानों में सुरगे बिछादी। किन्तु दूसरेही दिन जर्मनी ने नार्वे पर हमला कर दिया, जिसकी तय्यारी वह पूर्व से ही कर चुका था और मित्रराष्ट्रो की कार्यवाही से पूर्व ही उसकी सेनाएँ चल पडी थी। नार्वे ने जर्मन आक्रमण का मुक़ाबला किया। जर्मनी ने समुद्री तथा हवाई जहाज़ो द्वारा ओस्लो, क्रिश्चियन सुण्ड, स्ट्रावेजर, बरगेन, ट्राण्डद्वीप और नार्विक नामक स्थानो पर एक साथ अपनी सेनाएँ उतारदी और १००० मील लम्बे नार्वेजियन समुद्र-तट के, सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण, सब बन्दरगाहो पर अधिकार कर लिया। १५ दिन के भीतर ८५,००० नात्सी सैनिक वहाँ पहुँच गए। सहायता के लिये, एक सप्ताह बाद, नार्वेकी भूमि पर मित्र-सेना उतरी। मित्र-राष्ट्रो की योजना उत्तर तथा दक्षिण के मार्ग को बन्द करने की थी, ताकि ओस्लो से आनेवाली जर्मन सेना रेलवे लाइन तक न पहुँच सके। नार्विक मे घोर युद्ध हुआ। हाथ से गये हुए नार्विक को फिर से जीत लिया गया। किन्तु इस युद्ध मे मित्र-राष्ट्रो की पराजय इसलिये हुई कि नार्वे के राजनीतिज्ञ मेजर किसलिग् के विश्वासघात के कारण नात्सी-सेना नार्वे के प्रमुख हवाई अड्डो और बन्दरगाहो को प्रथम