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भारत
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में जोरों की चर्चा चल पड़ी थी। पार्लमेन्ट के दोनों हाउसों में भारत-सम्बन्धी सरकारी नीति की निन्दा की गई। तब जुलाई १९४१ में एक श्वेत-पत्र प्रकाशित हुया, जिसमें कहा गया कि युद्ध-काल में समस्त भारत के सहयोग के लिये एक केन्द्रिय युद्ध-सलाहकारी बोर्ड बनाया जायगा और वाइसराय की कार्यकारिणी कौंसिल में हिन्दुस्तानी सदस्य बढ़ा दिये जायँगे। कांग्रेस ने सरकार के इन प्रस्तावों को स्वीकार नहीं किया। मुसलिम लीग भी इनसे सन्तुष्ट नहीं हुई। वह वाइसराय की कौंसिल में अपना बहुमत माँगती थी। पाँच सदस्य वाइसराय की कार्यकारिणी में इस अवसर पर बढ़ा दिये गये।

मि॰ जिन्ना ने इस पर कहा कि, "यह तो कोरा दिखावा है। इसके द्वारा तो सरकार के अधिकार और शक्ति में वास्तविक भाग नहीं मिला।" निर्दल सम्मेलन के नेता डा॰ जयकर ने कहा कि, "एक भी असली विभाग तो योरपियन के हाथ से भारतीय के हाथ में नहीं आया। मि॰ एमरी अब भी पुरानी ब्रिटिश नीति, अविश्वास और सन्देह, को ग्रहण किये जा रहे हैं।" फरवरी १९४२ में फिर निर्दल सम्मेलन की बैठक हुई। डा॰ जयकर ने इसमें बलपूर्वक कहा कि, "बिना जनता को साथ लिये सरकार इतने बड़े युद्ध को कदापि नहीं चला सकती। हम भारत में मलय की स्थिति को नहीं देखना चाहते। हटो, और हमें अपनी रक्षा का काम सँभालने दो।" उनसे अगले महीने सर तेज तथा अन्य निर्दल नेताओं ने फरवरी के सम्मेलन के प्रस्ताव आधार पर मि॰ चर्चिल से अपील की।

अगस्त १९४१ की अटलांटिक योजना भी अपने साथ कुछ नहीं लाई। कांग्रेस तो उस पर मौन रही, किन्तु लिबरल नेता पं॰ हृदयनाथ कुँजरू ने इस पर कहा कि, "इस प्रकार की योजनाएँ और समझोते भारत के लिये तो क्रूर हास्य जैसे हैं। अटलांटिक योजना पर भारत के हस्ताक्षर हैं इसलिये कि राष्ट्रों को अपने भविष्य में आशा और विश्वास उत्पन्न हो, किन्तु भारत को वह स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं हो सकती, जिसका वचन वह दूसरे देशों को देता है। क्या इससे बढ़कर भी कोई विरोधाभास हो सकता है?"

दिसम्बर '४१ में सरकार ने कुछ उदारता दिखाई। सत्याग्रह के कैदियों को छोड़ दिया गया, किन्तु अन्य राजनीतिक क़ैदी नहीं छोड़े गये। इसी मास में