लेनिन
पूजीवाद, अपने प्राथमिक युग मे, छोटे-छोटे उत्पादको, जमीदारो, महाजनो और सूदखोरो मे पनपता है। उसके उत्तरकालीन विकास-युग मे, बडे पैमाने पर उत्पादन करनेवाले, राजे-रईस, बडे बेड्कर पूर्वाक्ता लघु पूजीपतियों को आत्मासात कर जाते है। यह बडे पूजीपति, वर्तमान समाज मे, राज्य या शासनसस्थ के एक अन्योन्याश्रित श्राडू बन गये है इसलिये कि, राज्य के सहयोग से, उन्हे अपने माल की खपत और व्यापार फैलाने के लिये, देश-विदेश की मडिया उनके हाथ मे आजादी है और वहॉ का कच्चा माल भी उन्हें मिल जाता है। इन्ही बडे पूजीपतियो की स्वर्थ-रक्शा के लिये अनेक साम्राज्यवादी देशों मे पारस्परिक संघर्ष और युद्द होते है। अतएव साम्राज्यवाद पूजीवाद का ही एक पाप है।
श्रमजीवियो मे पूजीवाद दो वर्ग उत्पन्न करता है। बुद्धिजीवी श्रमजीवियो को सधिक पारिश्रमिक या वेतन देकर उनमे श्रेष्ठता अथवा सम्पन्न्ता के भाव की वह सृष्टि करत है। बडी तनखाहे पानेवाले यह पढे-लिखे मजदूर क्रन्तिवादि मनोभावना से विमुख होकर सुधारवाद का प्रचार करने लगते हैं। गरीब कोटी के मजदूरो को वह भ्रमित करने पर स्थिर रहता है।
मार्क्स की भॉति लेनिन राज्य को, हुकूमत करनेवाले समुदाय का,एक औजार मानता है। उसकी सम्मति में पार्लेमेन्टरी-शासन प्रगाली पूजीवादी समुदाय का एक श्रष्ट अधिनायक[ डिक्टेटर] तन्त्र है।
साम्राज्यावाद पूजीवाद के अप्रकट विरोधाभोसो की वृद्धि करता है, जिससे नितनए संघर्श और युध चलते रहते है। साम्राज्य या राज्य सामन्तो और पूजीपतियों के आश्र य पर खडे हैं। इन सब पापों का निराकरण किसान-मजदूरों की क्रान्ति से होगा जो इनके स्थान पर, समाजवादी संसार की सृष्टि करके पार्लेन्टरी के स्थान पर किसान-मजदूरों की पंचायती सरकार कायम करेंगे। समाज मे से जब वर्ग-भेद मिट जायेगा,