तथा युद्ध-सामग्री भेजी। गृह-युद्ध की अन्तिम अवस्था मे इस कमिटी ने अपना काम बन्द कर दिया।
अहिंसा—विचार, वाणी और व्यवहार से हिंसा का परित्याग। इसका तात्पर्य यह कि एक पूर्ण अहिंसावादी की अपने मन, अपने वचन, तथा अपने कर्म में किसी भी प्राणी के लिए द्वेष-भाव को स्थान न देना। महात्मा गान्धी पूर्ण अहिंसा के अनन्य उपासक तथा समर्थक हैं। सत्य-दर्शन—आत्मा का साक्षात्कार अथवा मोक्ष—उनका लक्ष्य है, और अहिंसा उसका साधन है। यह केवल एक नैतिक या धार्मिक सिद्धान्तमात्र नहीं है, प्रत्युत् गान्धीजी का तो यह एक मौलिक जीवन-सिद्धान्त है। वह अहिंसा को व्यक्तिगत जीवन के लिए जितनी उपयोगी और आवश्यक मानते हैं, उतनी ही सामूहिक जीवन तथा राजनीतिक क्षेत्र में भी उसके पालन पर ज़ोर देते हैं।
उनका यह ध्रुव निश्चय है कि भारत अहिंसा द्वारा ही स्वाधीनता प्राप्त कर सकता है और, उन्हें ऐसा विश्वास भी है कि, अहिंसा द्वारा स्वाधीनता प्राप्त कर लेने के बाद, भारत अहिंसात्मक ढंग से ही, अपनी स्वाधीनता की रक्षा भी कर सकेगा। जब समाज में अहिंसा की पूर्ण प्रतिष्ठा हो जायगी, तब पुलिस, सेना तथा किसी प्रकार के बल-प्रयोग के साधन की आवश्यकता न रह जायगी
महात्मा गांधी अहिंसा को एक साधन नहीं मानते, उसे साध्य मानते हैं—एक लक्ष्य मानते हैं। परन्तु उनके सहयोगी तथा कांग्रेस-जन सामान्यतया अहिंसा को एक नीति के रूप मे स्वीकार करते हैं। नीति का समय-विशेष पर त्याग भी किया जा सकता है, परन्तु धर्म का त्याग—लक्ष्य का परित्याग—तो संभव नहीं। गान्धीजी अंहिसा के इतने प्रबल अनुयायी हैं कि वह उसके समक्ष भारतीय स्वाधीनता के प्रश्न को भी गौण समझते हैं। सत्य और अहिंसा उनके जीवन के चरम लक्ष्य हैं। उनकी राजनीति इन दो से बाहर की वस्तु नहीं, इन्हींके प्रयोग पर खरी उतरनेवाली व्यवस्था ही उनकी राजनीति है। गान्धीजी की अहिंसा किसी व्यक्ति, समाज या देश तक सीमित नहीं। भारत को ही अपना यह अमृत पिलाकर वह अमर नही बनाना