पृष्ठ:Garcin de Tassy - Chrestomathie hindi.djvu/१००

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

॥४॥ तुछ अंन उपजेगा राई। अति प्रानी भूषे मरि जाई॥ बरष दिना द्विज को जु सेवा। तब घर बाम्न जिमावे देवा ॥ कलि के विप्र जु घर घर फिरहीं। कछु यक लाज चित्त मन पस्ती॥ थोरा तृण उपजेगा राई। गोवें जाय किर पती बाई॥ जन्य धर्म कलि बिरला होई। कलि मे सगा न कोई लोई॥ कलि मे कन्या बेचें बापा। मलाटुषी लोहिं तिहि पापा ॥ विप्र देव भिछा पराई। नीच जाति की सेवा करई ॥ विप्र न काढू लिये समोही। कोउ कर्म नाटे लर षोई॥ बिप्र हिं सकल करें व्योपारा। परहरि कुल के प्राचारा॥ संध्या लीन रहें सुष माना। बिप्र लिं तजें बेद की काना॥ सल्स को बेठे जो हई। जो न देयती पापी कई ॥ निंदा जाय बिरानी काई। कर्म आपने चित नलि धरई॥ बेद पुरान म्यान पलाई। पर धन लेवे को मन धरई ॥ मूरष सठ बलुते नर होई। येक गुनी बिरला नर कोई ॥ कलि जुग ऐसा धनी धरे। पिता पुत्र की करनी करे॥ सो मे येक जपेगा रामा। यसे लोहिं कलि जुग के कामा । बळु अकर्म कलि जुग मे लोई। कलि मे बिप्र न माने कोई ॥ जा के चित जु राम पद लोई। कबढू न कलि जुग व्यापे सोई॥ मूष न जान कछु ये बाता। कोइय न जाने जमपुर जाता॥ कलि समुद्र के सागर देवा। कबलु न करि वे हरि सेवा ॥ कलि के लोग कपट मन धाई। लेवे को हरि सो नहिं उरई ॥ मुकति काज को तीरथ जाई। बोरया ग्रह तहां कांही ॥