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॥ १०॥ चलो कुंवर ले जाउं हों जो मनि बांधो धीर॥ चोपई। कुंवर कठे तुम चलो पियारी। दिन दिन बिथा लोत भारी॥ चित्ररेषा बोली तिस बारा। निमष माहिं ले जाउं कुंवारा ॥ चली उठाय कुंवर गहि बाहीं। अति प्रानंद भई मन माहीं॥ अति चातुरि लसी मन माहीं। बेगवंत आई उस गाई॥ . ले मंदिर उषा के गई। कुंवर सहित तलं ठाड़ी भई॥ चलु देष्या जब निरषि कुंवारू। बन पखत तहं अगम अपारू ॥ बिलमो कुंवर नेक इहिं ठाई। हों उषा को पूछों जाई॥ दोला। पोरि पासि ठाड़े कुंवर मंदिर गई पियार। चहुं दिस चक्रत पर स्हीं तन मन नाहि करार ॥ चौपई। चित्ररेष तब देष्यो जाई। कुंवर रेष बिरल अधिकाई। सषी येक जो दीपक कई। बिरल रूप कछु समझ न परई ॥ ऐसे चरित नारि जब देष्या। सेज निकट ठाही चितरेषा । तब चितई उषा मन माहीं। चित्ररेषा संग प्रीतम नाहीं॥ कुंवरि सेज तब उठी रिसाई। कहो सषी इकली क्यों आई। त्रास लागि मे राषे प्राना। तें तो कपट रूप मन माना॥ अति कठोर तोहि दया न आई। बिरल अगिन फेरि दो लाई ॥ होला। बचन लागि सुनि मे सषी दिन ब/ गये पचिकार।