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॥३॥ बांधा श्री खडग हाथ में ले मास्ते को उपस्थित । व्याकुल हो थरथराय प्रांखें उबउबाय बितूर बिस् । पसार करने लगीं। . बंधु भीख प्रभु मो को देश । इतनों जस तुम जग में लेउ। इतनी बात के सझे से श्री रुक्मिनी जी की ओर देर । जी का सब कोप शांत कुत्रा। तब उन्हों ने उसे: । पर सारथी को सेन करी उस ने झट इस की पगडी ; काय मूंछ दाही श्री सिर मूंड सात चोटी रख स्थ के । रुक्म की तो श्री कृष जी ने यहां यह अवस्था की । से सब असुर दल को मार भगायकर भाई के मिलने । जैसे स्वेत गज कंवल दह में कंवलों को तोड खाय बि ! भागता होय। निदान कितनी एक बेर में प्रभु केर । श्री रुक्म को बंधा देख श्री कृष जी से अति मुंभ । तुम ने यह क्या काम किया जू साले को पकड बां । नहीं जाती। बांध्यो यानि की बुद्धि योगे। यह तुम कृष.सगाई तोरी॥ श्रो युटु कुल को लीक लगाई। अब हम सों को करिले सगाई॥ जिस समें यह युद्ध करने को प्राप के सनमुख प्राय समझाय बुझायके उलटा क्यों न फेर दिया । ऐसे क