पृष्ठ:Garcin de Tassy - Chrestomathie hindi.djvu/७९

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॥३॥ . कबीर। . मूल। कबीर कानि राषी नही वर्णाश्रम षट दर भक्ति विमुष जो धर्म सोव अधर्म करि गा जोग जन्य ब्रत दान भजन बिन तुछ दिषा हिंदू तुरक प्रमान रमेनी सबढी साखी। पछपात नहि बचन सब ही के लित की प्रारूरु दसा हे जगत पर मुख देषी नाति ! कबीर कानि राषी नही वर्णाश्रम घट दरस । कबीर जू की टीका।। अति ही गंभीर मति सरस कबीर लियो लियो भक्ति । सब टारिये। भई नभ बानी देह तिलक करवानी । गो माल.धारिये। देखे नही मुख मेरो मानिके मले । न्हान गंगा कही मग तन गरिये। रजनी के से समें ! श्राप धो पग राम कहे मंत्र सो बिचाहिये। कीनी तिलक बनाव गात मानि उतपात माता सोर कियो : पुकार रामानंद सू के पास प्रानि कही कोउ पूछ तुम रिये। ल्यावो झू पकरि वा को कब हम कियो शिष्य मे पूछी कहि डास्थेि। राम नाम मंत्र यही लिष्यो षोलि पट मिले सांचो मत उर धारिये। वुने तानी । महानों कहि केसे के बषानों वह रीति कळू न्यारिये