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॥७२॥ वाही ठौर चल्यो माता पळुचाय बाळु बाय गहे पाय भाव भयो गयो काम है। विषई कुटिल चारि साधु भेष लियो धारि कीनी मनुहारि कही तिया निज दीजिये। करिके सिंगार सीता कोठे मांझ बैठी जाय चाहें मग अातुर के प्राजू जावो लीजिये। गए जब द्वार उठी नाली सु फाखि कों फार नही बानो जानि प्राय अति पीजिये। अपनी बिचारो लियो कियो भोग भावना को मांनि सांच भये सिष्य प्रभु मति धीजिये। गूजरी को धन दियो पियो ढली संतनि ने बांभन को भक्त कियो देवी दई निकारिक। तेली कों जिवायो भैस चोरनि पे फेरि ल्यायो गाडी भरि आयो तन पांच ठोर जारिके। कागद ले कोरो कयो बनिया को सोक लयो भयो घर त्यागि उरी हत्या लू उतारिके। राजा को प्रोसेर भई संत को जु बिभी ई लई चीठी मानि गए श्री रंग । उदारिक। श्री रंग के चेत धखो तिय लिय भाव भयो बालन कों सोक लयो राजा पे पूजायके। चंदवा बुझाय लियो तेली को ले बेल दियो पुनि घर माझ भयो सुष श्रायके। बोई अकाल पखो जीव दुष टूरि कसो पस्यो भूमि गर्भ धन पायो दे लुटायके। अति बिसतार लिये कियों के बिचार यह सुने एक बार फेरि भूले नही गायके॥