पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/१०३

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था और यह नगर उत्तर कालीन है- यही कहना इतिहास से युक्तिसंगत है।

'अजमेरू' नाम का अर्थ 'पृथ्वीराज विजय' में "अजय राजा का बनाया हुआ मेरू" है। इसी प्रकार अनेक दूसरे नाम प्रचलित हैं। उदाहरणार्थ जैसलमेरू, जैसलमीर, कमलमेरू ( कुम्मल मेर ), वालमेर अथवा वामेरू ( वाहडमेरू ), भांभमेरू और अजयमेरूगढ ( अजमेरगढ ) इत्यदि। अजमेर का मराठों से बहुत कुछ सम्बन्ध रहा है।

(१) दिल्ली के चांदशाह और मराठों के सन्धिपत्र के अनुसार १७५० ई० में अजमेर की सूवेदारी मल्हारराव होलकर और जयजीराव सीन्धिया को प्राप्त हुई।

(२) जोधपूर पर चढाई करने के लिये मार्ग में अजमेर सैनिक हप्टि से बडे महल्व का स्थान था। १७५ ई० में राजा विजयसिंह ने अप्पाजी सींधिया के बहुत से गाँव उजाड डाले। इसपर मराठों ने अजमेर को अपना केन्द्र बनाकर जोधपूर और मेरठ के आसपासके गाँवों को लूट्ना शुरू कर दिया।

(३) बाद में यह सूबा होलकर को पुरस्कार रूप में मिला था। शक १७६४ में जब पठानों के दिल्ली पर आक्रमण का समाचार बादशाह ने सुना तो सींधिया को बादशाह ने सहायतार्थ बुलाया। इस सहायता के बदले में बादशाह ने अजमेर का सूबा मल्हारराव को उपहार-स्वरूप दे दिया। अजमेर - यह काठियावाढ का एक छोटा सा गाँव है परन्तु अब इसका समावेश नवानगर में हो गया है। यहाँ की जनसंख्या ५०० है।

अजमेरीगंज - आसाम प्रान्त। जिला सिलहट के हवीगंज का विभाग। यह गाँव सुम्रा नदी के किनारे पर बसा है। इसकी जनसंख्या ६०० है। यहाँ बहुत कुछ व्यापार होता है। यहाँ से चावल, सूखी मछली, बाँस, चटाईयाँ इत्यादी बाहर जाती हैं।

अजमोदल - ( थायमोल thymol) यह अजमोदा से निकाल जाता है। इसका उपयोग कीटाणुओं के नाश के लिये अत्यन्त लाभदायक है। (Eczema) येक्जेमा इसव तथा प्सोरीआसिस इत्यादि बाहरी रोगों में यह गुणकारी है। दाद, गजकर्ण, खुजली इत्यादि रोगों में इसका उपयोग अन्य औषधियों के साथ मिलकर किया जाता है। घाव और कट जाने पर भी इसको लगा ने से फायदा होना है। सन्निपात ज्वर में अँत्रडियों को साफ रखने के लिये यह गुण्कारी है। ( Ankylostome Duodonale) अंकिलोस्तोम डयोडिनेल के कीटाणु को नाश करने के लिये यह अत्यन्त लाभदायक है। अमेरिका के आस्पतालों में अदिद नाम औषधि के साथ इसका बहुत कुछ प्रयोग अब किया जाने लगा है। ग्लाँकोथायमोलीन नाम की औषधि कफ और अंतडियों के शीत में अती लाभदायक है। नँफथलीन, कपूर और अजमोदल का मिथ्रण 'थायमोलीन' के नाम से बिकता है।

अजमोदल की रासायनिक प्रकृति क० १० उ० १४ प्र० अथवा ( क. ६ उ ३) ( प्रउ) ( क उ ३) (क. ३ उ ७) है। [ १:३:६] अजमोदल मथिल इसो प्रापिल फिनील और कंठिजरल ( करवाकोज) के समान है। इस में गन्ध विशेष होती है। अजमोदल में उत्कर्ष सायमीन क १० उ १४ और थायमीन क १० उ १६ रहता है। यह अजवाइन इत्यादि को तेलों में भी पाया जाता है। तेल से अजमोदल निकालने के लिये उसमें सौम्यदाह का पलास का जलद्रव डालकर पहले उसका मिश्रण करना चाहिये। तब अजमोदल का निपात होता है। वह छान कर और सूखा कर उर्ध्वपत न की किया से शुद्ध कर के व्यवहार में लाना चाहिये।

अजमोदल मेन्थाँन से कृत्रिम रीति से तय्यार किया जा सकता है। मेन्थाँन का हरीपुक्ति का ( Chloroform) पर स्तंभन करना चाहिये। तब द्विस्थम्भ-मेन्थाँन तय्यार होता है। इस में उदस्तयाम्ल के अण निकलने पर अजमोदल तय्यार होता है। इसके मणिभ ( Crystals) बडे, चपटे और स्वच्छ निर्चर्ण होते है। इसका रसांक ४४ श और उत्कथ्वाँक २३ श होता है। अजमोदल और स्फुरगंधकिद मिश्रण करने से सायमीन तय्यार होता है। अजमोदल की सुगन्ध तेज और तीदण होता है। अल्कहल, इअ, ह्ररिपुत्ति का अथवा जैतून का तैल ( Olive oil) में यह विद्राव्य है। परन्तु ठंडे जल में यह नही गलना। यह कर्बाम्ल ( Carbolic acid) के साथ कीटाणु नाश के लिये अधिक शक्तिमान है। किन्तु अविद्राव्य होने से इस