पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/१०८

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एक समय गौतम बुद्ध की अजातशत्रु से भेंट होने का उल्लेख मिलता है। इसकी कथा सामाज्य सुता में मिलती है। इसमें वर्णन किया गया है कि अजातशत्रु ने अपने पितृ-वध के पांतक के लिए गौतमबुद्ध से मिलकर पश्चाताप प्रकट किया और बौद्द सिद्दान्तों के प्रति अपनी अटल भक्ति दर्शाकर उनसे क्षमा प्राप्त की। बहुत स्तूप पर इस प्रसंगकर चित्र भी बना हुआ है (बुद्धोत्तर जग० पृ० १४७)।

    कौशलनरेश की बहन अजातशत्रु की सौतेली माँ थी। अपने पति का वध देखकर वह सती साध्वी भी परलोक सिधारी। यह मालूम होने पर कौसलाधीशने अजातशत्रु पर चढ़ाई कर दी। बहुत दिन तक युद्द चलता रहा। अन्त में विजय मगधराज की ही रही। अन्त में कौशल नरेश को अपनी कन्या देकर सन्धि करनी पड़ी (वी० स्मिथ की अर्ली हिस्ट्री)। हीस डेविडसने इस विषय में भिन्न ही कथा दी है। (बुद्धोत्तर जग० पृ० १३८)। इस विजय से अजातशत्रु को सन्तोष नहीं हुआ। उसने गंगा के उत्तर में लिच्छावी राज्य (आधुनिक तिरहुत) पर चढ़ाई की। इसकी राजधानी वैशाली थी। यध्यपि अजातशत्रु की माता उसी वंश की थी तो भी उसने अपने मातामह का प्रदेश अपने आधीन कर लिया तदनन्तर उत्तर में हिमलय तक के सम्पूर्ण प्रदेशों को जीत कर अपने राज्य में मिला लिया। लिच्छवी रज्य से अपनी पूर्ण रक्षा के हेतु उसने सोन नदी और गंगा के संगम पर पाटली नामक गाँव में एक किला बनवाया। इसके बाद कुसुमपुर, पुश्पपुर, पाटलीपुत्र के नाम से यह गाँव सारे भारत में प्रसिद्ध हो गया, और मौर्यवंश के समय तो यह केवल मगध का ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण भारत का केन्द्र बना हुआ था। वायुपुराण में इस नगर की उत्पत्ति की कथा है। यह ध्यान में रखने योग्य बात है कि इसके तीनों नाम पुष्पवाचक ही हैं। 
     अजातशत्रु के देहान्त का समय लगभग ई० पू० ५२७ होगा। अजातशत्रु का ऊपर दिया हुआ काल वी० स्मिथ के आधार पर भी कहा जा सकता है। प्रथमत: तो उसने अजातशत्रु क सभय मोटी रीति से ई० पू० ५०५-४७५ और बुद्ध निवार्ण का समय ई० पू ४८७ अथवा ४८६ लिखा था (Early History Ed. 1914)। परन्तु कुछ घटनाओ के सभावेश से वी० स्मिथ कुछ निश्चयपूर्वक नहीं कह सके हैं। एक जगह उनका कथन है कि बिम्बसार महाबीर का ही समकालीन था किन्तु महावीर का निवार्ण काल तो ५२७ ई० पू माना है। 
      खारवेल के शिलालेखों से शिशुनाग वंश का समय कुछ पीछे हटाना पड़ता है और अजातशत्रु को ५५४-५२७ ई० ही का काल देना पड़ेगा। किन्तु बुद्ध और महावीर बिम्बसार और अजातशत्रु के समकालीन अवश्य थे और उन दोनों की मृत्यु अजातशत्रु के समय ही में हुई थी, और महावीर के निवार्ण का समय ई० पू ४०७ भी हो सकता है। अतः इस पर निश्चयपूर्वक स्मिथ साहब भी कुछ न कह सके। 
      बिहार उड़ीसा के संशोधन मणडल (Research Society) के पत्र (Journal) के १६१६६ ई० के दिसम्बर अंक में श्रीयुत क० पी० जयसवाल ने अजातशत्रु मूर्ति के संशोधन का वृत्तान्त दिया है (Modern Review Feb 1920)। उनका कथन है कि पह्ले वह मूर्ति किसी यक्ष की समभी जाती थी, पर इस मूर्ति के नीचे एक लेख है। इसके कुछ अक्षर अध्यश्य हो गए हैं किन्तु जो हैं उन्ही के आधारों पर शंका करने का कोई भी कारण नहीं रह जाता। उसमें मिलता है - सेनी (श्रेणी) अजा (त) शत्रु, फुणिक सेवा सिनजो (शिशुनाग) भगधनं राज इत्यादि इत्यादि। 
      अजाहुत सरदेशमुख-पहले पहल मराठों के राजा शाह ने 'अजाहुत सरदेशमुख' नामक एक पद अपने मन्त्री के एक सम्बन्धी के लिए निर्माण किया था। इस पदपर काम करनेवाले को सम्पूर्ण मराठा देश से सरदेशमुखी (एक प्रकार का कर) वसूल करना पड़ता था। शाहू की मृत्यु के बाद बालाजी बाजीराव ने केवल नाम- मात्र के लिए यह पद कायम रक्खा। उसने कुछ जागीर अजाहुत सरदेशमुख के नाम अवश्य कर दी किन्तु दक्षिण के ६ प्रान्तों से देशमुखी वसूल करने का अधिकार उसके हाथ से निकाल लिया। बाद में तो धीरे धीरे पेशवाओने इस पद को बिल्कुल ही तोड़ दिया क्योंकि यह कर वसूल करने का अधिकार पेशवाओं ही को था और यदि यह अधिकार किसी दूसरे के हाथ में छोड़ दिया जाता तो पेशवाओं की सत्ता में बहुत कुछ कमी आ जाती। 
      आजित-जैनियों के २४ तीर्थक्करों (अवतारों) में से यह दूसरा माना जाता है। प्रथम अर्हत के बाद यह दूसरा अर्हत हुआ। जैनियों ने काल के दो भेद माने हैं- (१) उत्सपिणी। इससे तात्पर्य