पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/१२६

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विलियम चतुर्थकी इच्छाके अनुसार रानी ऑडीलेडके सम्मानार्थ इस नगरका नाम ऑडीलेड रक्खा गया। अडुर-यह बम्बई प्रान्तके धारवाड जिले में हंगलसे दस मील पूरवमें एक छोटासा गाँव है। यहाँकी जनसंख्या लगभग १५०० है। १२वीं शताब्दीके एक शिलालेखमें पाणडीपुर नामसे इसका उलेख किया गया है। १०६२ ई० तक यह छोटे विभागका मुख्य स्थान था। इसके पूर्वमें कालेश्र्वर का मन्दिर है। वहाँ १०४४ ई० का एक शिलालेख है (Fleet's Kanarese Dynasties 36-85-47)। इस गाँवमें दो शिलालेख और भी मिले है। एक १०३४ ई० का है और दुसरे पर समय नहीं दिया है। कदाचित् वह भूतपूर्व चालुक्य वंशके छठे राजा व्रतिवर्मा (५६७ ई०) के कालका है। तेरहवें राप्रकूट के राजा द्वितीय क्रष्णा(०७५-६१२) के समयके (अर्थात् ६०४ ई० का) पश्र्विमके चालुक्य वंशके राजा सोमेश्र्वर प्रथम (१०४२-१०६०) के कालके (अर्थात् १०४४ ई०) दो शिलालेख हैं। उस समय वहाँ कुल ४० शिलालेख प्राप्त हुए है। अडुसा- इस वनस्पतिके पेड इस देश में सब स्थानोँमें पाये जाते हैं। संस्क्रतमें वासक,वासा,अटरुश इत्यादि; मरठीमें अडुलसा; बंगालीमें वासक; उडियामें वासं; तमिलमें अधडोडे; गुजरातीमें अडूसो लैतिनमें Adhatoda; अंगरेजीमें Adhatoda Vasaka कहते हैं। पैदाइश-भारतवर्षके समस्थ ऊष्ण प्रदेशमें ४००० फीटकी ऊँचाइ तक यह पेढ़ पाया जाता है। पूर्वी भाग में साधारण और पश्र्चिम तथा दक्षिणमें बहुत कम मिलते है। कहीं कहीं इसके जंगलही जंगल नजर आते है। उपयोग-औषघि, रंग और खाद इत्यादि में इसका उपयोग किया जाता है। यह बनस्पति क्रमि-नाशक भी है। पुराने कफ बिकार, दमा या क्षय रोगोँमें यह काम देता है। जैकउडके वुरादे के साथ इसकी पत्ती उबालनेसे पीला रंग तैयार होता है। क्रमिनाशक होनेके कारण और पोटश की अधिकताके कारण खादके लिये इसकी पत्ती का इस्तेमाल किया जाता है। रासाथनिक भस्म तयार करनेमें इस पत्तीको काममें कलाते हैं। इसी पेड़ले बंदूकोंकी कारतूसें तयार करनेके लिये कोयला बनाया जाता है। बंगालमें इसकी लकड़ी से मणि (मालाके लिये) तयार करते हैं। नागा पहाड़ौं में इस पेड़से साइत विचारते हैं। इसकी क्रमि-नाशकतामें संदेह किया जा रहा है। वैज्ञानिक हूपरने साबित किया है कि इस वनस्पतिमें क्षार होता है जिसे वैसिसाइन (Vacisine) नाम दिया गया है। टारद्रेट बाजार में मिलता है परन्तु उसके समान दूसरे क्रमि-नाशक पदार्थ उपलब्ध होने के कारण उसका उपयोग कम होता है। खाद तयार करने और क्रमिनाशमें इसकी पत्तियाँ उपयोगी हो सकती हैं या नहीं इसके लिये अभी और अन्धेषण करने की आवश्यकता है। अडूसाकी पत्ती सूखी चाहे हरी दोनोंही उपयोगी होती हैं, पर वह पुरानी होनी चाहिये। नयी पत्ती (कोपल) किसी कामकी नहीं होतीं,पुरानी पत्ती जरा कडी होती है। इसकी पत्ती जरा लंबी होती है। रासायनिक पृथक्करण- अडूसामें वैसिसीन नाम का क्षार और 'अटेटोडिक एसिड' कार्बनिक अम्ल (Organic Acid) रहता है। गुण धर्म- कफदोष-नाशक,कफसंस्त्रावी (कफ गिरने वाला) और वायुको दबाने वाला है। इसका विशेष गुण रत्तकपित्त या क्षयक्षतमें गिरने वाने रक्त्तको बंद करना है। पुरानी खाँसी,साँस कफ अथवा कफक्षयकी प्रारम्भिक अवस्था (इसमें बुखार हलका सा रहता है) और अन्य कफजनित दोषोँमें अडूसा बहुत लाभदायक है। तीव्र ज्वरमें इससे उतना लाभ नहीं होता। पुराने रोगोँमें छोटी पीपर के साथ अडूसा देने से लाभदायक होता है। (Dr. U.C. Dutta Hindu Matria Medica) यह कंडुवा और उंढा है। यह कँवल रक्त्तपित्त, कफज्वर,क्षय,साँस आदिका नाशक है (राजनिघंटु)। यह ऊर्व्वग और अधोग रक्त्तपित्तको नाश करने वाला है (गण)। हृद्रोग, कै, कुष्ट, प्यास इत्यादिमें उपयोगी है (धन्वन्तरि)। ज्वर, मैह, अरुचिमें उपयोगी होते हुए वादी और कफको दूर करने वाला है (केयदेव नि०)। इस तरह निघंटुमें