पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/१३१

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अरुन-भोतिक तथा रसायन दोनो ही शाखाओ मे किसी भी पदार्थके उस अत्यन्त सूदम भगको 'अरुन' केह्ते है जिसका अस्तित्व स्वतन्त्र रीतिमे हो सकता हो। भारतके त्तव्ग्यान मे 'अर्गु'शब्द्की चर्चा की गई है किन्तु भोतिक शाखामे उसका कोई निशचित स्थान नही रक्खा गया था। 'आट्म' शब्द एउरोपेमे सत्र हवी शतब्दीमे प्रचालित हुआ था, किन्तु उस समय तक लोग 'श्ररगु' और 'परमारगु' के भेद्से भिग्या न थे। इसललिये दोनो शब्द समान ही अरथ के लिये प्रयोगमे लाये जाते थे। य्ह भेद तो १६ वी शताब्दीके मध्य से मालूम हुआ और उसी समयसे भेद्के अनुसार शब्दोका प्रयोग भी किया जाता है। यहुधा परमारगु रासायनिक कियाके विश्य मे व्यवहार्मे लाया जाता है। अरगुसे भी छोटे और सुक्श्म पधार्थ्के करगासे रासायनिक किया की जाती है। किसी पधार्थ के अर्गुसे भी सुक्शम कर को परमडु केह्ते है।

    किसी पदार्थका अर्गुमे विभाग हो सकता है अथवा यो केह सकते है कि समुदायसे पदार्थ-रचना होती है।  प्राचीन कालसे आधुनिक समय तक किस किस भाति अर्गु और पदार्थ रचना की कलपनाये बदलती गई है, इस विश्यका इतिहास जमेस कार्क मेकस्वेल्के शब्दो मे आगे दिया जाता है।
   अरगु सिधान्त तथा अनन्तविभाग सिधान्त:- अर्गुसिधान्तवादियोका मत है कि किसी भी पदार्थ का अर्गु एक एसा सूक्श्म भाग है जिसके आगे उसका फिर भाग हो ही नही सकता और पदार्थकी रचना अर्गु समुश्च्य से होति है। अनन्त- विभाग- सिधान्त् - वादियो का कथन है की पदार्थ समजातीय तथा आपसमे नथे हुए अर्थात श्रयिच्छिब होते है। उधाहारणके लिये वह विशयमे केहते है कि चाहे जलका कितना ही सुश्कम भाग किया जाये उसके बाद भी उसका भाग हो सकता है और यह क्रिया अनन्त तक हो सकती है।
  इसपर अर्गुसिधान्त् वादियोका कथन है कि किसि मर्यदा तक ही पदार्थ्के विभाग हो सकते है जिसके आगे होना असम्भव है और जो सबसे पन्छ भाग हो उसीके अर्गु कहा जाता है। विरोधियोका मत है कि अर्गु चाहे कितना भी छोटा हो तो भी उसके चारो औरका कुछ न कुछ तो आकार होगा ही और जिसका आकार और परिमाण होग वह विभज्य अवश्य है।
प्रचीन कालमे डिमाकीटीस (यूनानी तत्व्वेत्ता) ने इस सिदान्तकी कल्पना की थी। पदार्थ अनेक भागमे समनरुपसे फेले हुए है। इससे यह कल्पना की जा सकती है की यथार्थमे जड पदार्थ अनन्त भागो तकमे विभिक्त हो सकता है। आन्क्ज्गोरसका मत, उसके विरुध मत तथा इसी सिधान्त पर अनेक अन्य खराड्नमराडन लुकेशियस नामक ग्रन्थकारने अपनी पुस्तक मे भलीभति दर्शाये है।
  अर्गु-सिधान्त का प्राचीन तथा अधुनिक इतिहास-अधुनिक समय मे स्रिस्ट पदार्थो क अध्ययन खूब जोरो से हो रहा है। इससे यह स्पस्ट हो गया है कि पदार्थ के सुक्श्म कर्गो पर तथा उन की गति पर अनेक गुराधरम निर्भर है। इस विश्य मे बहुत कुछ ग्यान प्राप्त् हो जाने से इसका विस्तार पूर्वक वर्गन किय जयेगा। दोनो पधो का कथन भिन भिन है। बहुत प्रचीन काल के युनानी तत्व वेत्तओ ने सन्ख्या अनिश्चित म्ह्त्वमान, दिक, स्थल, काल, जड पदार्थ तथा गति इत्यदि के विश्य मे स्वतन्त्र रीति से बहुत कुछ विचार कर डाला है। इस्मे सन्देह नही है कि उनका प्रत्यद्शान अथवा शास्त्रिये अनुभव अत्यन्त अल्प य तो भी आगे के लिये पथदर्शक का काम कर गये है जिससे बहुत सहयता मिली है।आर्म्भ मे यदि किसी भी विश्य का ग्यान उन्हे समुचित रुप से हुआ था तो वह सनख्या का ही ग्यान था। अब हम इसी सन्खया के आधार पर  तथा उनके उस ग्यान की सहायता से जड वस्तु की माप और क्रिया करते है। दुसरी ध्यान मे रखने योग्य बात है सन्ख्या की विछित्रता। एक सन्ख्या से दुसरी सन्ख्या पर हम प्लुत गति से बड जाते है। किन्तु रेखाग्रित मे जो हमको महत्वमान देख पड्ता है वह बिल्कुल ही अविच्छिन्न है। सन्ख्य सम्बन्धि विचार पादिद्थ का प्रयोग रेखाग्रित के महत्वमान पर करने का प्रयत्न करने से ही अप्रिमय सन्ख्य और अवकाश के अनन्तविभाग करने की कल्पना का प्रादुभ्रार्व हुआ। किन्तु काल के विश्य मे यह कल्पना नही की गई। इलिया तथा जेनो के समय मे यह विचार था की काल के